अ जर्नी फ्रॉम देवघर टू जापान

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By Prabhat Khabar Digital Desk | February 1, 2018 7:09 PM
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।।विजय बहादुर।।
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युवाओं में शोध को लेकर आज भी कम ही अभिरुचि दिखती है. इसके दो मूल कारण हैं. पहला, रिसर्च के लिए आधारभूत संरचना व धन का अभाव. दूसरा, शोध में सफल होने में अधिक श्रम और लंबे वक्त का लगना. पूर्वी भारत खासकर झारखंड-बिहार में तो शोध को लेकर आधारभूत संरचना की हालत काफी खस्ती है, लेकिन इन हालात में भी झारखंड के सौरभ शांडिल्य जैसे युवा शोध के क्षेत्र में बेहतर काम कर रहे हैं. भौतिकी में उनके शोध का क्षेत्र उच्च ऊर्जा भौतिकी है. फिलहाल सौरभ यूनिवर्सिटी ऑफ सिनसिनाटी, ओहायो, अमेरिका में पोस्ट डॉक्टोरल फेलो के रूप में कार्यरत हैं और इसी फेलोशिप के तहत सौरभ जापान में बेल्ल फर्स्ट तथा सेकेंड प्रयोग का हिस्सा हैं.
बीएचयू ने दी नयी उड़ान
देवघर जैसी छोटी जगह से निकल कर इतनी बड़ी सफलता बेशक बड़ी कामयाबी है. इन उपलब्धियों को जान कर जेहन में यह बात तैरने लगी कि बचपन से ही सौरभ प्रतिभाशाली रहे होंगे और शिक्षा-दीक्षा अच्छे स्कूलों में हुई होगी, लेकिन सौरभ बताते हैं कि स्कूल-कॉलेज में वो सामान्य छात्र थे. दसवीं की पढ़ाई मॉडर्न पब्लिक स्कूल, देवघर और इंटरमीडिएट देवघर कॉलेज से हुई. उसके बाद बीएससी (भौतिकी) व एमएससी की पढ़ाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से हुई.
स्कूल के दिनों से ही उन्हें विज्ञान अच्छा लगता था.इंटर में जाने तक उनकी रुचि खासकर भौतिकी में विकसित हुई. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का भौतिकी विभाग काफी अच्छा था, जहां कुशल अध्यापक के साथ-साथ अच्छी प्रयोगशालाएं भी थीं. वहां जाने के बाद भौतिकी विषय उन्हें रोमांचित करने लगा और वहीं उन्होंने अपना लक्ष्य तय कर लिया था कि आगे विज्ञान के क्षेत्र में ही जाना है. इसके बाद चयन शोध के लिए उनका नामांकन टाटा फंडामेंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट में हुआ, जो अपने देश का मूलभूत विज्ञान तथा गणित के लिए उत्कृष्ट शोध संस्थान है.
बेल्ल प्रयोग की जरूरत
अगर हम पदार्थ के सूक्ष्मतम स्तर तक जाएं, तो हम परमाणुओं से परिचित होते हैं. परमाणु के अंदर नाभिक होता है, जो प्रोटोन और न्यूट्रॉन कणों से बना होता है और इस नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाता है इलेक्ट्रॉन. प्रोटोन और न्यूट्रॉन क्वार्क नामक मूलभूत और अति सूक्ष्म कणों से बने होते हैं. उच्च ऊर्जा भौतिकी में मूलतः हम पदार्थों के इन्हीं मूलभूत तथा अति सूक्ष्म कणों और उनके बीच परस्पर क्रिया करनेवाले बलों का अध्ययन करते हैं. प्रत्येक पदार्थ कणों के प्रति पदार्थ कण होते हैं, जैसे इलेक्ट्रॉन का प्रति पदार्थ पॉजिट्रॉन, क्वार्क का प्रति क्वार्क इत्यादि. इन सभी प्रति पदार्थों की खोज प्रयोगशालाओं में की जा चुकी है.
अगर अचानक पदार्थ कण अपने प्रति पदार्थ कणों से मिल जायें, तो आपस में विलीन हो जाते हैं और शेष सिर्फ ऊर्जा बचती है. तथाकथित बिग बैंग थ्योरी हमें बताती है कि ब्रह्मांड के निर्माण के समय बराबर मात्रा में पदार्थ और प्रति पदार्थ बने. अब प्रश्न यह उठता है कि क्या हम अपने आस-पास मुख्य रूप से पदार्थ कणों को पाते हैं? तो ये प्रति पदार्थ कण कहां गये? इसी मूल प्रश्न के उत्तर के लिए बेल्ल प्रयोग का निर्माण किया गया.
सौरभ के डाटा का विश्लेषण जर्नल में प्रकाशित
इन मूलभूत कणों को प्रयोगशाला में उत्पन्न करने के लिए मीलों लंबे त्वरक की आवश्यकता होती है, जो इलेक्ट्रॉन या प्रोटोन (सामान्यतः बहुतायत मिलनेवाले कण) के किरण-पुंज (बीम) की उच्च ऊर्जा में त्वरित कर आपस में टक्कर कराते हैं, जिनसे दोबारा नये कणों (जो सामान्यतः बहुतायत में नहीं मिलते हैं) का निर्माण होता है. जापान के त्सुकुबा शहर में एक ऐसा ही त्वरक है, जिसकी परिधि तीन किलोमीटर है और यहां इलेक्ट्रॉन व पॉजिट्रॉन की उच्च ऊर्जा टक्कर होती है. इस प्रकार के टक्कर से उत्पन्न कणों का पता लगाने के लिए अत्याधुनिक संसूचक (डिटेक्टर) की आवश्यकता होती है, जो इन टक्करों से डाटा प्राप्त करता है.
बेल्ल प्रयोग ने वर्ष 1999 से 2010 तक इन टक्करों से वृहत डाटा प्राप्त किया और इस डाटा के विश्लेषण के रिजल्ट के आधार पर वर्ष 2008 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रोफेसर कोबायाशी तथा मासकावा को मिला. सौरभ ने भी इस डाटा का विश्लेषण किया है और उससे प्राप्त परिणाम अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जर्नल में प्रकाशित हुए. बेल्ल प्रयोग की सफलता को देखते हुए संसूचक (डिटेक्टर) को और उन्नत किया जा रहा है, जिसे बेल्ल द्वितीय कहा जायेगा. बेल्ल द्वितीय प्रयोग में इस वर्ष डाटा इक्कट्ठा करने का काम शुरू हो जायेगा. इस संसूचक के विकास में भी सौरभ योगदान दे रहे हैं.
सफलता के तीन महत्वपूर्ण चरण
जीवन में सफलता का राज के सवाल पर सौरभ कहते हैं कि सफलता के तीन महत्वपूर्ण चरण होते हैं. पहला आत्मनिर्भर होना, दूसरा समाज में योगदान देना और तीसरा कार्यक्षेत्र में प्रवीण होकर या सामाजिक योगदान से, अपने कार्यों से अमर होना. इस हिसाब से वो खुद को सफल नहीं, बस आत्मनिर्भर मानते हैं.
परिवार का मिला भरपूर सहयोग
उनके शोध को आगे बढ़ाने में उनके परिवार का बहुत बड़ा योगदान रहा है. पिता सेवानिवृत्त बैंकर, मां गृहिणी एवं बहन गणितज्ञ (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस टेक्नोलॉजी से डॉक्टरेट) हैं. जीवन संगिनी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मिलीं. वो भी वैज्ञानिक हैं. वह स्टोनी ब्रूक यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क में कार्यरत हैं. उनके परिवार के लोगों ने कभी कोई करियर (डॉक्टर या इंजीनियर) का लक्ष्य उन पर नहीं थोपा, बल्कि सहयोग ही किया. सौरभ मानते हैं कि शोध को आजीविका बनाना काफी कठिन होता है, क्योंकि आपको सफलता देर से मिलती है. लंबे संघर्ष में कई बार निराशा भी मिल सकती है. ऐसे में पारिवारिक सहयोग काफी महत्वपूर्ण होता है.
सौरभ मानते हैं कि लक्ष्य निर्धारित करना अहम है. लक्ष्य ऐसा चुनें, जिसमें आपकी रुचि हो, जो सामाजिक या पारिवारिक दबाव से परे हो अन्यथा भटकाव की काफी संभावना रहेगी. जीवन में अनुशासन भी बेहद जरूरी है, हालांकि कहना जितना आसान है, वह व्यवहार में उतना ही कठिन है. अनुशासन और मेहनत का कोई तोड़ नहीं है. उन्होंने शुरू में ही अपना लक्ष्य तय कर लिया था और उससे ज्यादा वह भटके नहीं. कई बार निराश भी हुए, लेकिन इतना ज्यादा नहीं कि दिशा बदलनी पड़े. इस दौरान उतार-चढ़ाव को स्वीकार किया और पिछली गलतियों से सीख लेते हुए प्रयत्न किया कि दोबारा ऐसा न हो.
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