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नीचे दिये दो उद्धरणों को पढ़ें :
पहला, वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट हेल्थ फॉर एडोलेसेन्ट्स (2014) में अवसाद को 10 से 19 वर्ष के किशोरों की बीमारी और अक्षमता का मुख्य कारण बताया गया है. सड़क दुर्घटना और एचआइवी (एड्स) के बाद सबसे ज्यादा किशोरों की मृत्यु अवसाद के कारण होती है. रिसर्च से ये भी साबित हुआ है कि जिन परिवारों में पैरेंट्स और परिवार के सदस्य अवसाद से ग्रसित हैं, उन परिवारों के बच्चों में अवसाद होने का प्रतिशत बढ़ जाता है.
दूसरा, हाल में एक रिपोर्ट आयी कि सिलकन वैली, जहां दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों के लोग रहते हैं, वहां के स्कूलों में, जहां उनके बच्चे पढ़ने जाते हैं, मोबाइल और कंप्यूटर का इस्तेमाल बैन कर दिया गया है. वहां आउटडोर खेल और एक्टिविटीज को ज्यादा प्रोत्साहित किया जा रहा है.
ये दोनों रिपोर्ट्स आज किशोरवय बच्चों की बदलती दुनिया में हो रहे बदलाव की तरफ इशारा कर रही हैं.
अधिकतर स्कूलों में बच्चों का रिजल्ट प्रकाशित हो चुका है. 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं जारी हैं. माहौल ऐसा है, मानो बच्चों के साथ उनके अभिभावकों की भी परीक्षाएं चल रही हैं. किसी भी मध्यमवर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय घरों में चले जाएं. बिल्कुल शांति नजर आती है या यूं कहें कि घुटन-सा माहौल रहता है. रिजल्ट निकलने के बाद ऐसा लगता है जैसे बच्चे और अभिभावकों ने जंग जीत ली है या हार गये हों. पढ़ाई और करियर के बोझ तले छात्र और उनके अभिभावक दोनों दबे हुए हैं.
कुछ मामलों में ऐसा लगता है कि जैसे वे अवसाद में हों. बच्चों में बढ़ रही आत्महत्या और हिंसा के मामले इसके प्रमाण हैं. बच्चों को लगता है कि वो जो करना चाहते हैं या बनना चाहते हैं वो कर नहीं पा रहे हैं. पैरेंट्स को लगता है कि उनका बच्चा अगर यूनिक फील्ड में जाना चाहता है और वो उसमें मुकाम हासिल नहीं कर पाता है, तो उसके लिए आनेवाला जीवन कठिन हो जाएगा. इसलिए वो उसे परंपरागत रास्तों या करियर ऑप्शन की तरफ जाने के लिए प्रेरित या बाध्य करते हैं. पैरेंट्स को नरेंद्र मोदी, विराट कोहली, साइना नेहवाल, रणवीर सिंह या इन जैसे आइकॉनिक लोगों की तरह का करियर गोल बनाना तो बढ़िया लगता है, लेकिन असफल होने का मतलब जीवन में आगे का रास्ता काफी दूभर हो जाना होगा.
बच्चों में बढ़ाएं उत्साह
बच्चों में उत्साह बढ़ाने के लिए खुले माहौल में चर्चा जरूरी है. शिक्षक, छात्र और पैरेंट्स के साथ संवाद करने से अधिकतर मामले सुलझ जाते हैं. कई ऐसे पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाये, तो बच्चों में हौसला काफी बढ़ सकता है.
– अधिकतर अभिभावक बच्चों के माध्यम से अपने सपने साकार करना चाहते हैं. बच्चों से जब संवाद होता है, तो वे खुल कर बोलते हैं. उनके सपनों को पंख देने की कोशिश करें.
– टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल आज की जरूरत है, लेकिन इसका अतिशय उपयोग बच्चों को मानसिक रोगी बना रहा है. पब्जी, ब्लू व्हेल, टिक-टॉक जैसे खतरनाक एंटरटेनमेंट गेमिंग ने बच्चों को मोबाइल तक सीमित कर दिया है.
– शिक्षकों और किशोरों की सबसे बड़ी समस्या पर अभिभावकों को ध्यान देना होगा. अपने बच्चों के लिए समय निकालना होगा, हालांकि अभिभावकों की अपनी दलील है, लेकिन आपके बच्चे आगे तभी बढ़ेंगे, जब आप उनकी हौसला अफजाई करेंगे.
– किशोरावस्था में बच्चे स्वभाव से थोड़ा उग्र होते हैं. अभिभावकों को यह समझना होगा. हर बात पर बच्चों को डांटने की प्रवृति छोड़ें. उन्हें प्रोत्साहित करें.
– अभिभावक अपने बच्चों को सबसे बेहतर देखना चाहते हैं, लेकिन सब कुछ स्कूल के भरोसे छोड़ने से नहीं होगा. अभिभावकों को भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझनी होगी.
– शिक्षकों पर सिलेबस पूरा करने का दबाव होता है. एक दौर था कि बच्चों पर सख्ती करने पर अभिभावक खुश होते थे. आज बच्चों को मामूली डांट पड़ने पर भी अभिभावक आपत्ति दर्ज करा देते हैं. जबकि होना यह चाहिए कि अभिभावक, शिक्षकों की बात सुनें और बच्चों को समझाएं.
– बच्चों के साथ सामंजस्य बैठाना जरूरी है, हालांकि मनोवैज्ञानिक और विशेषज्ञ यह मानते हैं कि बच्चों के साथ अभिभावक और शिक्षकों का को-ऑर्डिनेशन आसान नहीं है, लेकिन तीनों में को-ऑर्डिनेशन होगा, तो बच्चे बेहतर करेंगे.
– बच्चों के साथ दोस्ताना संबंध बनाएं. उनके साथ ज्यादा संवाद करें, ताकि वे अपने मन की बात अपने अभिभावक और शिक्षकों के साथ साझा कर सकें.
– बच्चों के व्यवहार में कोई असामान्य बदलाव हो, तो उसे समझने और जानने की कोशिश करें. उसे इग्नोर करेंगे, तो परेशानी बढ़ सकती है.
– बच्चों की क्षमता को पहचानें. उसी आधार पर उनके करियर की प्लानिंग करें. दूसरे बच्चे से उसकी तुलना नहीं करें. इसे बच्चे पर अनावश्यक दबाव बढ़ेगा.
– सामान्य पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों को नैतिक शिक्षा भी दें, ताकि वो अच्छा इंसान बन सकें.
– स्कूलों के करिकुलम में बदलाव कर क्रिएटिव लर्निंग पर फोकस करने की जरूरत है, ताकि पढ़ाई का दबाव कम हो.
हाल में मैंने पैरेंटिंग को लेकर कई एक्सपर्ट्स के विचार पढ़े. सभी में एक बात कॉमन थी कि अपने बच्चों को कम उम्र से ही कठिन हालात में जीने की आदत डालिए. इससे ये शारीरिक व मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे. जीवन में किसी भी परिस्थिति का सामना करने में इन्हें मदद मिलेगी. इस मामले में एक बहुत ही रोचक शोध कार्य का जिक्र करना जरूरी है.
बच्चों के मनोविज्ञान पर काम करनेवाला एक अमेरिकी संस्थान वेल की हैदराबाद स्थित भारतीय शाखा ने तीन साल के शोध के बाद जो परिणाम जारी किया , उसके मुताबिक भारतीय बच्चों की सुख-सुविधाओं में वृद्धि के साथ-साथ उनमें सहिष्णुता की कमी आयी है. देशभर के गांव व शहरों के छह हजार बच्चों से पूछे गये सवाल और उनके व्यवहार पर पाया गया कि जिन बच्चों के जीवन में थोड़ी कठिनाई है, थोड़ा अभाव है या उनकी मांगें जल्द पूरी नहीं होती हैं, उनमें सहिष्णुता का स्तर सुविधा संपन्न बच्चों से ज्यादा है.