विचारों में दृढ़ता चाहिए, जड़ता नहीं
अगर दूसरी विचारधारा या तर्क में कुछ बढ़िया भी हो, तो मैं उसके साथ खड़ा होना तो दूर उसकी तारीफ भी नहीं कर सकता हूं, क्योंकि लोग ऐसा न समझ लें कि मैंने अपने विचार या सोचने का नजरिया बदल दिया है.
बदलते वक्त के साथ इंसान के मानस में भी बदलाव हो रहा है. दूसरों को सुनने की प्रवृत्ति या यूं कहें इंसान की सहनशक्ति कमतर होती जा रही है. उसे लगता है कि जो वह सोचता है या बोलता है, बस वही सही है. नीचे दिये गये कुछ केस स्टडीज को देखें, जो आपको अपने बीच ही रोजमर्रा के जीवन में नजर आयेगा.
-
केस स्टडी 1-मैं तो बस ऐसा ही हूं. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है, लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं या उन पर इसका क्या असर होता है.
-
केस स्टडी 2– मैं बचपन से ही एक राजनीतिक/धार्मिक/सामाजिक विचारधारा का समर्थन करता हूं. उसमें कोई कमी भी नजर आये, तो भी मैं उसके साथ खड़ा रहूंगा, क्योंकि मुझे तो बस इसके साथ चलना है.
अगर दूसरी विचारधारा या तर्क में कुछ बढ़िया भी हो, तो मैं उसके साथ खड़ा होना तो दूर उसकी तारीफ भी नहीं कर सकता हूं, क्योंकि लोग ऐसा न समझ लें कि मैंने अपने विचार या सोचने का नजरिया बदल दिया है.
वस्तुतः विचारों के नाम पर हम कूपमंडूकता में जीने लगते हैं. अपने विचारों को विस्तार करने का अवसर नहीं देते हैं. विचार के नाम पर हम अपने विचारों को ही गिरवी रख देते हैं. या यूं कहें हम भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं. हम शायद ये भूल जाते हैं कि सोचने समझने का नजरिया ही इंसान को इंसान बनाता है.
हमारे अंदर कम से कम इतना लचीलापन जरूर हो कि दूसरों की बातों को सुनने की क्षमता रखें. मानने या नहीं मानने का निर्णय कहीं न कहीं तथ्य के मेरिट के आधार पर तय किया जा सकता है.
वर्षों से हम इस विचार को पढ़ते/सुनते आये हैं कि अपने घर की खिड़की और दरवाजे को खुला रखें, ताकि बाहर की ताजी हवाएं आपके घर के अंदर आ सके, लेकिन इन हवाओं का वेग इतना भी नहीं होना चाहिए कि आपके घर की खिड़कियां और दरवाजे ही सुरक्षित न रह सकें.
कहने का आशय है कि जीवन में विचारों और व्यवहार को लेकर एक संतुलन जरूरी है.
Posted By: Mithilesh Jha