विजय बहादुर
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पिछले सप्ताह दिल्ली में हुए दंगे में अब तक 46 लोगों की मौत हो चुकी है और कई लोग घायल हैं. हिंदुस्तान या पूरी दुनिया में दंगा का ये कोई पहला मामला नहीं है. इतिहास गवाह है कि इससे पहले भी दंगों की आंच में जनजीवन झुलसता रहा है. जिंदगी दांव पर लगती रही है. लोग कराहते रहे हैं. हरे जख्म ठीक से भरते भी नहीं कि उन पर मरहम लगाने की जगह वक्त-बेवक्त नमक छिड़क कर फिर से उन्हें हरा कर दिया जाता है.
दिल्ली या इस तरह की किसी भी घटना पर किसी भी इंसान (अगर उसमें मानवीय संवेदना है) को दुःख होगा. उन्माद में की गई या कराई गई हत्या किसी भी व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है.
हम लगातार सुनते और पढ़ते हैं कि अमूक व्यक्ति ने आवेश में आकर किसी की हत्या कर दी. क्रोध में कभी-कभी तो ऐसा व्यक्ति अपने परिवार के लोगों पर भी हमला कर देता है यानी खुद का ही नुकसान कर लेता है.
सवाल ये उठता है कि ऐसा क्या होता है कि हम इतने उन्मादी हो जाते हैं कि इंसानियत के मायने भूल जाते हैं. ऐसे कौन से कारक हैं जिससे हम भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं. किसी की मौत के दर्द को भी शायद तभी महसूस कर पाते हैं जब कोई अपना होता है. अन्यथा हर मरने वाले की संख्या का आंकलन धर्म और जाति के आधार पर करते नजर आते हैं.
वक्त के साथ शिक्षा का स्तर तो बढ़ रहा है, लेकिन सच कहें, तो शायद मानवीय मूल्यों को लेकर सोचने के नजरिए का विस्तार नहीं हो पा रहा है.
टेक्नोलॉजी में बदलाव के कारण आज सूचना के कई माध्यम उपलब्ध हैं. एक तरह से कहें तो आज सूचना के विस्फोट का दौर है, लेकिन परेशानी ये है कि इस दौर में सूचना की विश्वसनीयता तेजी से कम होती जा रही है. कोई भी सूचना जब हम तक पहुंचती है तो ये विश्वास करना मुश्किल होता है कि ये सही है या गलत.
24 घंटे सोशल मीडिया (पारंपरिक मीडिया का रोल भी कुछेक मामलों में संदिग्ध महसूस होता है) में धार्मिक, जातिगत और अन्य हिडन एजेंडे के तहत फेक, तनाव और नफरत पैदा करने वाले कंटेंट डाले जा रहे हैं और हम सभी बिना जांचे-परखे (बहुत बार बिना पढ़े भी) उसे कॉपी, फॉरवर्ड या कट पेस्ट कर जाने-अनजाने उनके कुत्सित प्रयासों को अमलीजामा पहनाकर गहरी साजिश का हिस्सा बन जाते हैं. जब हम परिवार, बच्चों और समाज में लगातार नफरत के बीज बोयेंगे तब तो उसका विस्फोट और आउटकम वही होगा जो दिल्ली में दिख रहा है या अन्य जगहों पर हमें दिखता है.
शायद यही वजह है कि इस तरह की घटनाएं कम से कम मुझे तो अब बिल्कुल आश्चर्य में नहीं डालती हैं.
मेरा मानना है कि हमें जुनून और उन्माद के बीच के फर्क को अच्छी तरह समझना होगा. जुनून किसी व्यक्ति के किसी भी क्षेत्र में बेहतर करने के लिए जरूरी तत्व है, लेकिन उन्माद बर्बादी के द्वार खोलता है. उन्मादी व्यक्ति सही और गलत का फर्क भूल जाता है. उन्माद में ना सिर्फ वह दूसरे का नुकसान करता है बल्कि खुद उसके लिए भी आत्मघाती साबित होता है.