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आखिर हम इंसान कब बनेंगे?

B Positive : पिछले 15 दिनों से हाथरस, बलरामपुर एवं आजमगढ़ में महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म, यौन उत्पीड़न और हिंसा की वीभत्स घटनाओं के बाद पूरे देश में रोष है और मामला मीडिया (सोशल मीडिया सहित) की सुर्खियों में है.

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B Positive : पिछले 15 दिनों से हाथरस, बलरामपुर एवं आजमगढ़ में महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म, यौन उत्पीड़न और हिंसा की वीभत्स घटनाओं के बाद पूरे देश में रोष है और मामला मीडिया (सोशल मीडिया सहित) की सुर्खियों में है. लगभग 10 महीने पहले रांची के कांके थाना क्षेत्र में लॉ कॉलेज की छात्रा से सामूहिक दुष्कर्म, हैदराबाद (तेलंगाना) के बाहरी इलाके में एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर जलाने की घटना एवं कैमूर (बिहार) में एक लड़की को अगवा कर सामूहिक दुष्कर्म कर वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में वायरल करने की घटना के कारण महिलाओं के साथ हो रहे यौन उत्पीड़न, हिंसा और बलात्कार की चर्चा पूरे देश के केंद्र में आ गयी थी.

इससे पहले 2012 में दिल्ली में हुए वीभत्स निर्भया कांड के बाद देशव्यापी आंदोलन हुए थे. भारी विरोध के बाद सरकार को इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए कड़ा कानून बनाने पर मजबूर होना पड़ा था, लेकिन सवाल वहीं आकर रुक जाता है कि क्या वजह है कि इससे पहले भी और उसके बाद भी इस तरह की घटनाएं जारी हैं और हमारे लिए ये सिर्फ खबर या सूचना बन कर रह जाती है. हर बार इस तरह की घटनाओं को सुनकर लगता है कि भले ही स्थान बदल गया हो, लेकिन अपराध की प्रकृति कमोबेश हर बार लगभग एक जैसी ही रहती है.

इसी तरह कभी सुनने/पढ़ने को मिलता है कि छोटी बच्चियों (तीन-चार साल तक की भी) के साथ दुष्कर्म कर उन्हें मार दिया गया. हर बार मन में यह प्रश्न उठता है कि सरकार ने कानून तो बनाया. ऐसी घटनाओं के बाद विरोध प्रदर्शन के बाद कानूनी कार्रवाई भी हुई, बावजूद इसके इस तरह की घटना पर अंकुश नहीं लग पाया. इन घटनाओं को देख एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इंसान अपने मानवीय मूल्यों, करुणा और संस्कार को छोड़ कर नरपिशाच कैसे बन सकता है.

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मुझे लगता है कि कोई भी व्यक्ति (इंसान कहना सही नहीं होगा), जो इस तरह के कुकृत्य को अंजाम देता है, उसकी आपराधिक प्रवृत्ति एक दिन में विकसित नहीं होती है. इस तरह के व्यक्ति मनोरोगी होते हैं. किसी भी व्यक्ति की गलत प्रवृति के लिए न सिर्फ वो दोषी होता है, बल्कि उसका परिवार और समाज भी उतना ही जिम्मेदार होता है.

हर घटना के बाद लोगों की प्रतिक्रिया देखिए तो साफ लगता है कि समाज के बहुत बड़े हिस्से की प्रतिक्रिया सलेक्टिव है. एक ही विषय पर एक दृष्टिकोण के बजाय इंसान जाति-धर्म, विचारधारा, व्यक्तिगत लाभ-हानि का आंकलन कर अपने विचार रखता है. सबसे बड़ा आश्चर्य ये है कि बहुत सारे लोग दबे स्वर में उसे जस्टिफाई करते भी नजर आते हैं. अपराधी किस्म के लोग रॉबिनहुड नजर आने लगते हैं. अपराध को क्रिया-प्रतिक्रिया के आधार पर सही गलत साबित करने की कोशिश की जाने लगती है. समाज की इसी प्रवृत्ति के कारण जाने-अनजाने गलत करने वालों का मनोबल बढ़ता है.

अपने आसपास बच्चों/किशोरों की गतिविधियों को देखें, तो लगेगा कि ये जो दरिंदगी का विस्फोट दिख रहा है, उसके सूत्र और बीज कहीं और छुपे हैं. बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए भौतिक जरूरतें मुहैया करा रहे हैं, लेकिन नैतिक शिक्षा देने से चूक रहे हैं. हम सभी जानते हैं कि घर किसी भी बच्चे की पहली और समाज दूसरी पाठशाला है. बच्चा जो देखता है, वही सीखता है और उसे ही क्रियान्वित करने की कोशिश करता है.

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मेरा मानना है कि बदलते वक्त के साथ लोगों के सोचने के नजरिये में भी बदलाव हो रहा है, लेकिन इस बदलाव का असर सोचने के नजरिये में विस्तार के रूप में होना चाहिए. हमने जीवन में बहुत सारा धन, शोहरत और पहचान अर्जित कर लिया, लेकिन ये सब बेमानी है अगर हमने अपने और अपने परिवार में संस्कार और मानवीय मूल्यों के बीज नहीं बोये.

जहां गलत हो, वहां सवाल करें, प्रतिकार करें क्योंकि अगर हम सोचते हैं कि घटना मेरे साथ तो नहीं हुआ है, तो हम भूल कर रहे हैं क्योंकि आज दूसरे के साथ गलत हो रहा है, तो कल ये किसी अपने के साथ भी दोहराया जा सकता है. इसलिए सबसे महत्वपूर्ण है कि हम इंसान बनें.

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