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Azadi Ka Amrit Mahotsav: बोकारो के गोमिया थाना में ब्रिटिश पुलिस से जा भिड़े थे चुनू महतो

हम आजादी का अमृत उत्सव मना रहे हैं. भारत की आजादी के लिए अपने प्राण और जीवन की आहूति देनेवाले वीर योद्धाओं को याद कर रहे हैं. आजादी के ऐसे भी दीवाने थे, जिन्हें देश-दुनिया बहुत नहीं जानती वह गुमनाम रहे और आजादी के जुनून के लिए सारा जीवन खपा दिया. झारखंड की माटी ऐसे आजादी के सिपाहियों की गवाह रही है.

चुनू महतो की कहानी उनके पुत्र रतिलाल महतो उर्फ गांधी महतो की जुबानी.

Azadi Ka Amrit Mahotsav: आजादी के कई दीवाने गुमनामी में खोकर रह गये. वह देश के लिए लड़े. उसी के लिए जिये-मरे, पर उस अनुरूप न सम्मान मिला, न पहचान. उन्हीं में एक थे बोकारो के कसमार स्थित पूरबटांड़ (हंसलता) निवासी सीताराम महतो के पुत्र चुनु महतो. सीताराम एक साधारण कृषक थे. इकलौता पुत्र होने के कारण चुनू बड़े प्यार-दुलार से पले. जवान हुए तो दिल में देशप्रेम का जज्बा पैदा हुआ और 1918 में स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े. वह घर से जब भी निकलते, तिरंगा उनके हाथों-कंधों पर होता था. तिरंगा लहराते एवं ‘वंदे मातरम्’ के नारे लगाते हुए गांवों में घूम-घूम कर लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गोलबंद करते थे. कई बार पैदल ही हजारीबाग-चतरा तक चले गये. लोगों को चरखा चलाने के लिए भी प्रेरित करते थे. अपने घर में खुद भी सूत काटते थे.

फिरंगियों से रास्ते में मुलाकात होने पर कभी भागे नहीं. उनका मुकाबला किया. इन्हें अंग्रेजों ने कई बार कठोर दंड दिया. कभी कड़ाके की ठंड में रात भर ठंडे पानी में डुबोकर रखा, तो कभी शरीर पर कोड़े बरसाये. कई बार जमीन पर सुलाकर पैरों तले रौंदा गया. लेकिन देश प्रेम का जज्बा कभी कम नहीं हुआ. अंग्रेज पुलिस माफी मांगने के लिए इन्हें दबाव डालते थे. लेकिन कभी झुके नहीं. चुनू महतो के मुख से हमेशा एक ही बात निकलती थी-‘जान चली जाये तो चली जाये, कोई परवाह नहीं. पर मुंह से “वंदे मातरम्” निकलना बंद नहीं होगा.

फिरंगियों का डटकर किया मुकाबला

वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गोमिया थाना में जाकर ब्रिटिश पुलिस से जा भिड़े. थाना में अंग्रेजों ने मार-मार कर इन्हें अधमरा कर दिया. न उठ पा रहे थे, न मुंह से आवाज निकल रही थी. बेरमो के जरीडीह में ब्याही गयी इनकी बेटी करमी देवी को इसकी जानकारी मिली तो वे पति के साथ थाना पहुंची. बैलगाड़ी पर लादकर अपने पिता को थाना से घर ले गयीं. रात भर सेवा की. जब राहत मिली और चलने-बोलने लायक हुए तो अगले दिन पुनः गोमिया थाना जाकर अंग्रेजों से उलझ गये. ब्रिटिश पुलिस पहले तो इनका हौसला देखकर दंग रह गयी. फिर गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल भेज दिया. इससे पूर्व वर्ष 1934 में भी आंदोलन के दौरान जेल गए थे.

गांधीजी से प्रभावित थे

चुनू महतो गांधीजी से काफी प्रभावित थे. उन्हें अपना आदर्श मानते थे. गांधीजी जब रामगढ़ अधिवेशन में भाग लेने पहुंचे, तो उनसे मिलने नंगे पांव चलकर पहुंच गये. उनसे मिलने के बाद इनमें स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर नया जोश पैदा हुआ. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान चुनू को जब पुत्ररत्न प्राप्त हुआ तो गांधीजी से प्रभावित होकर अपने पुत्र को गांधी उपनाम दिया. यूं तो पुत्र का मूल नाम रतिराम महताे है, पर चुनू महतो समेत पूरे घरवालों ने इन्हें हमेशा गांधी ही कहकर पुकारा. वे आज भी ‘गांधी महतो’ के उपनाम से ही जाने जाते हैं. वर्तमान में रतिलाल उर्फ गांधी महतो की उम्र 70 वर्ष पार कर चुकी है. आंखों से ठीक से दिखाई भी नहीं पड़ती. किसी तरह गुजर-बसर करते हैं. परिजनों को इस बात का गर्व है कि वे स्वतंत्रता सेनानी चुनू महतो के पुत्र हैं. लेकिन, इस बात का दुख भी है कि आजादी के 75 सालों में सरकार ने उनके परिवार की कभी सुध नहीं ली.

बदहाली के दौर से गुजर रहा परिवार

आज चुनू महतो का परिवार बदहाली का जीवन गुजार रहा है. एक सरकारी आवास (इंदिरा आवास या प्रधानमंत्री आवास) तक नसीब नहीं हुआ है. आज भी पूरा परिवार मिट्टी के छोटा-सा कच्चा मकान में रहने को मजबूर है. सबसे दुखद घटना तो यह हुई कि गांधी महतो का एकलौता पुत्र भीम महतो जवानी में चल बसा. बीमारी के कारण उसकी मौत वर्ष 2012 में 30 वर्ष की उम्र में हो गयी. भीम महतो की पत्नी का नाम चिंता देवी है. इनकी दो पुत्रियां हैं- आठ वर्षीय नेहा कुमारी एवं छह वर्षीय उषा कुमारी. इसके अलावा परिवार में गांधी महतो की पत्नी भी जीवित हैं. आय का कोई ठोस साधन नहीं है. खेती-बारी से किसी तरह इनका जीविकोपार्जन होता है. भीम महतो की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी को भी कोई सरकारी लाभ नहीं मिला. पारिवारिक योजना का लाभ भी नहीं मिल सका. वर्ष 1953 में स्वतंत्रता सेनानी चुनू महतो का निधन हुआ है. गांधी महतो के अनुसार, पिता के निधन के बाद वर्ष 1954-55 में पांच सौ रुपए मासिक स्वतंत्रता सेनानी पेंशन मिलती थी, पर दो वर्ष बाद वह भी बंद हो गयी. आज पूरबटांड़ की मूल पहचान चुनू महतो के कारण ही है. वैसे, यह गांव-टोला भी बिल्कुल उपेक्षित है.

रिपोर्ट: दीपक सवाल, बोकारो

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