झारखंड में अब प्लास्टिक के बोरा से धागा निकालकर बिरहोर जनजाति (Primitive Tribe Birhor) की महिलाएं रस्सी बांटने लगी हैं. विलुप्तप्राय बिरहोर जनजाति की महिलाओं का यह सदियों पुराना पेशा है. महिलाएं पहले जंगल से सबई और चोप लाकर रस्सी बांटतीं थीं. उसे बेचकर अपने और परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करतीं थीं. लेकिन, अब ट्रेंड बदल गया है. महिलाएं प्लास्टिक की रस्सी बांटने लगी हैं.
बिरहोर डेरा में रहते हैं विलुप्तप्राय बिरहोर जनजाति के लोग
हम बात कर रहे हैं झारखंड के बोकारो जिला के गोमिया प्रखंड (Gomia Block) की. गोमिया प्रखंड के लुगू पहाड़ (Lugu Pahar) की तलहटी में एक जगह है तुलबुल. यहां बिरहोर डेरा में आदिम जनजाति के लोग रहते हैं. बिरहोर डेरा में विलुप्तप्राय बिरहोर जनजाति के 25 से 30 परिवार रहते हैं. इनमें से अधिकांश का पेशा यही है.
रस्सी बनाना और जड़ी-बूटी बेचकर आजीविका चलाते हैं बिरहोर
पहले बिरहोर जनजाति के लोग जंगल से सबई और चोप चुनकर लाते थे. इनके परिवार की महिलाएं और पुरुष दोनों इससे रस्सी बांटते थे. इसके साथ ही ये लोग जंगलों से जड़ी-बूटी लाकर उसे भी बेचते थे. अब ये लोग प्लास्टिक से रस्सी बनाने लगे हैं. उनका कहना है कि सबई, चोप से बनी रस्सी की मांग अब बाजार में नहीं रही. प्लास्टिक की रस्सी मजबूत होती है. यह हल्का भी होता है. इसलिए लोग इसे ही खरीदते हैं.
बिरहोर डेरा के दर्जनों लोग बांट रहे हैं रस्सी
यही वजह है कि बिरहोर जनजाति की महिलाएं अब सीमेंट के बोरे को काटकर और उसके रेसे से रस्सी बांटने लगीं हैं. बिरहोर डेरा के दर्जनों लोग इस काम में लगे हैं. बिरहोर जनजाति की महिलाओं ने बताया कि सीमेंट का बोरा एक-दो रुपये में बाजार में मिल जाता है. उसका रेसा निकाल कर उसकी रस्सी बांट लेते हैं. बिरहोर डेरा की ज्यादातर महिलाएं इस काम में लगी हैं.
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आदिम जनजाति के लिए योजना बनाए सरकार
बिरहोर डेरा की महिलाएं खुश हैं, क्योंकि सीमेंट के बोरे को काटकर उससे निकाले गये प्लास्टिक के रेसे से बनी रस्सी की डिमांड इन दिनों बढ़ी है. सरकार जनजातियों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं चलाती हैं. ऐसे हुनरमंद लोगों के लिए कल्याण विभाग को कुछ योजना बनानी चाहिए, ताकि महिलाओं और आदिम जनजाति के अन्य लोगों को रोजगार से जोड़ा जा सके.
गोमिया से नागेश्वर की रिपोर्ट