Emergency 1975: 5 जून 1974 को जयप्रकाश नारायण द्वारा संपूर्ण क्रांति की घोषणा के बाद उभरे जन आंदोलन को दबाने के लिए 25 जून 1975 की रात को जब देश में इमरजेंसी लगाई गई, तो बोकारो में भी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं के बीच हड़कंप मच गया था. 26 जून की सुबह जब बोकरोवासी सोकर उठे तो माराफारी से लेकर बोकारो शहर में जगह-जगह पर पुलिस बल की तैनाती देखकर पहले तो लोग कुछ समझ नहीं पाए कि आखिर माजरा क्या है? पर थोड़ी देर में ही चारों तरफ यह बात फैल गई कि देश में इमरजेंसी लगाई गई है. हालांकि, अधिकतर लोग इमरजेंसी के मतलब से अनभिज्ञ थे. बोकारो में छात्र संघर्ष समिति और जन संघर्ष समिति से जुड़े कार्यकर्ता भी इमरजेंसी का मतलब ठीक तरह से नहीं समझ पाए थे. पर थोड़े समय में ही उन्हें पूरा माजरा समझ में आ गया और वे लोग पुलिस से छुपने लगे. इमरजेंसी के दिनों को याद कर आंदोलन से जुड़े लोग आज भी सिहर उठते हैं. आज के कार्यक्रम में अरुण किशोर, अदीप कुमार और मनोज भारती मौजूद थे. मनोज भारती उस वक्त आईटीआई, चास के छात्र थे और छात्र संघर्ष समिति की चास इकाई से जुड़े थे.
कई कार्यकर्ता हुए थे गिरफ्तार
उस समय छात्र संघर्ष समिति की कई इकाइयां यहां सक्रिय थी. आसाम के दिलीप कुमार, जो बोकारो में रहकर पढ़ाई करते थे, माराफारी इकाई के अध्यक्ष थे. इसी इकाई में आरएन ओझा, अदीप कुमार, कपिलदेव पाठक जैसे अनेक छात्र जुड़े थे. उसी तरह शिवाधार सिंह व अमरनाथ चौधरी सेक्टर तीन इकाई, तो राजेंद्र महतो व अखिलेश महतो आदि चास इकाई का नेतृत्व कर रहे थे. दूसरी ओर, मुरारीलाल जन संघर्ष समिति को नेतृत्व दे रहे थे. बोकारो कर्मचारी पंचायत के एसके राय व रामाकांत वर्मा तथा सोशलिस्ट पार्टी की युवा इकाई के मधुसूदन शुक्ला समेत अनेक लोग बोकारो में इस आंदोलन से जुड़े हुए थे. कोऑपरेटिव कॉलोनी के कामरेड रामता सिंह तथा बीएसएल में नौकरी करते हुए अरुण किशोर, अर्जुन कुमार, रामशारंगत चौधरी आदि भी आंदोलन में पूरी तरह से सक्रिय थे. इमरजेंसी के दौरान रामाकांत वर्मा, मधुसूदन शुक्ला, नकुल महतो समेत कई लोग गिरफ्तार कर लिए गए. अर्जुन कुमार के घर में जब छापामारी की गई तो उनके बिस्तर के नीचे छुपाकर रखा पर्चा बरामद हुआ. उसके बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया.
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बस की खिड़की से फेंककर बांटते थे पर्चा
आंदोलन से जुड़े अदीप कुमार बताते हैं कि उस समय वह जूनियर छात्रों में थे .उन्हें भी कई तरह की जिम्मेदारियां मिली थी. पर्चे बांटने से लेकर दीवान लेखन के कार्यों में उन्हें और अन्य जूनियर छात्रों को लगाया जाता था. पुलिस व अन्य लोगों की निगाहों से बचकर पर्चा बांटना भी काफी कठिन काम हुआ करता था. बोकारो से माराफारी या फिर माराफारी से बोकारो आने जाने के क्रम में बस की खिड़की से फेंककर पर्चा बांटना पड़ता था. बस में सवार लोगों की जब निगाह पड़ती थी और इस बाबत पूछते थे तो उन्हें संतोषी मां का पर्चा बताया जाता था. दरअसल, उन दिनों संतोषी मां को लेकर चर्चा काफी जोरों पर थी. उनसे जुड़ी पर्चा पढ़ लेने के बाद पुनः उस तरह का प्रचार छपवाकर या लिखकर सैकड़ों लोगों के बीच बांटना पड़ता था. यही कारण था कि बस में किसी के पूछने पर संतोषी मां का पर्चा बता देने पर लोग उसे पढ़ने के लिए मांगते नहीं थे. इसी तरह दीवार लेखन के कार्य में मुख्य रूप से जूनियर छात्र ही लगाए जाते थे. सीनियर छात्र सड़क पर एक तरह से निगरानी या पहरेदारी करते थे.
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जब प्राचार्य के कक्ष में लगायी थी जेपी की तस्वीर
एक अन्य घटना के संबंध में श्री कुमार ने बताया कि उन दिनों वह बोकारो के सेक्टर टू हायर सेकेंडरी स्कूल में 10वीं के छात्र थे. 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के दिन अमरनाथ चौधरी अब्ज के साथ मिलकर दोनों ने जयप्रकाश नारायण की एक तस्वीर खरीदी और उसे प्राचार्य के कक्ष में गांधीजी समेत अन्य तस्वीरों के बीच में लगा दिया था. बीके सिन्हा तब प्राचार्य थे. उन्होंने तस्वीर देखी, पर कहा कुछ नहीं. सिर्फ मुस्कुरा कर रह गए. परंतु अगले दिन जब स्कूल गए तो वह तस्वीर दीवार से गायब थी. पूछने पर प्राचार्य ने सिर्फ इतना भर कहा कि अभी इसका समय नहीं आया है. समय आएगा तो वह खुद अपने हाथों से इनकी तस्वीर को लगाएंगे. उसके बाद उन्होंने उस तस्वीर को दिखाया कि किस तरह उसे कार्यालय के अलमारी में सुरक्षित रख दिया गया था.
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कई नारे थे चर्चित
आंदोलन से जुड़े लोग बताते हैं कि छात्र संघर्ष समिति की माराफारी इकाई के अध्यक्ष दिलीप कुमार काफी संघर्षशील और जुझारू छात्र थे. उन्होंने नेतृत्व को पूरी मजबूती प्रदान की थी. आपातकाल के बाद जीवन यापन के लिए ऑटो चलाना शुरू किया, पर उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली. अधिकतर लोग उनके परिचित थे और वह उनसे ऑटो का किराया नहीं लेते थे. इससे उनकी कमाई उतनी अच्छी नहीं होने लगी और उन्हें वापस आसाम लौट जाना पड़ा. आंदोलनकारियों ने बताया कि शुरुआती दिनों में उन्हें जेपी आंदोलन के बारे में उतनी अधिक जानकारी नहीं थी. बस इतना भर बताया गया था कि यह छात्रों का आंदोलन है. धीरे-धीरे समझ विकसित हुई और यह पता चला कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के साथ-साथ अन्य ज्वलंत मुद्दों को लेकर यह आंदोलन छेड़ा गया है. बोकारो में आंदोलन को हवा देने वालों में पटना के हेमंत का भी अहम योगदान था. वह न केवल साथियों को मोटिवेट करते थे, बल्कि पर्चा भी वही छपवा कर लाते अथवा भिजवाते थे. श्री कुमार ने कहा कि आपातकाल देश के लिए कलंक था. उस अवधि में लोकतंत्र पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था. शायद यही कारण रहा होगा कि उस समय आंदोलनकारियों का नारा सन पचहत्तर छब्बीस जून, लोकतंत्र का हुआ था खून काफी चर्चित हुआ था. इसके अलावा ‘संपूर्ण क्रांति अब नारा है भावी इतिहास हमारा है’, ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा’, ‘महंगाई पर रोक लगाओ’, ‘तुम प्रतिनिधि नहीं रहे हमारा, कुर्सी गद्दी छोड़ दो’ जैसे नारे भी लगे थे. इमरजेंसी के दिनों को याद कर आंदोलन से जुड़े लोग आज भी सिहर उठते हैं. कहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र पर लगे उस धब्बे को भला कैसे भुलाया जा सकता है.
रिपोर्ट : दीपक सवाल, कसमार, बोकारो