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झारखंड: लुगुबुरु घंटाबाड़ी में अंतरराष्ट्रीय संताल सरना धर्म महासम्मेलन आज से, श्रद्धालुओं का होगा महाजुटान

संताली जानकारों के मुताबिक, लाखों वर्ष पूर्व दरबार चट्टानी में लुगुबुरु की अध्यक्षता में संतालियों की 12 साल तक मैराथन बैठक हुई. हालांकि, संताली गीत में एक जगह गेलबार सिइंया, गेलबार इंदा यानी 12 दिन, 12 रात का भी जिक्र आता है. इसके बाद संतालियों की गौरवशाली संस्कृति की रचना संपन्न हुई.

बोकारो, राकेश वर्मा/रामदुलार पंडा: बोकारो जिले के ललपनिया स्थित लुगुबुरु घंटाबाड़ी धोरोमगाढ़ संतालियों की धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा है. लुगुबुरु घंटाबाड़ी में दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संताल सरना धर्म महासम्मेलन आज से है. इसमें देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु जुटेंगे. मान्यता है कि हजारों-लाखों वर्ष पूर्व इसी स्थान पर लुगु बाबा की अध्यक्षता में संतालियों के जन्म से लेकर मृत्यु तक का रीति-रिवाज यानी संताली संविधान की रचना हुई थी. इस प्रकार लुगुबुरु घंटाबाड़ी देश-विदेश में निवास कर रहे संतालियों के लिए गहरी आस्था का केंद्र है और उनके गौरवशाली अतीत से जुड़ा महान धर्मस्थल है. हर अनुष्ठान में संताली लुगुबुरु का बखान करते हैं. कहा जाए तो लुगुबुरु संतालियों की संस्कृति, परंपरा का उद्गम स्थल है. विभिन्न प्रदेशों से आगंतुक श्रद्धालु यहां पहुंचते ही मानो धन्य हो जाते हैं, जो उनके चेहरे के भाव से साफ देखा जाता है. लुगुबुरु मार्ग में ऐसे कई चट्टान हैं, जहां से श्रद्धालु चट्टानों को खरोंच कर अवशेष अपने साथ ले जाते हैं. इससे संतालियों की लुगुबुरु के प्रति आस्था व विश्वास को समझा जा सकता है. संतालियों के हर विधि-विधान व अनुष्ठानों में लुगुबुरु घांटाबाड़ी का बखान किया जाता है.

12 साल चली बैठक और पूर्ण हुई संविधान रचना

संताली जानकारों के मुताबिक, लाखों वर्ष पूर्व दरबार चट्टानी में लुगुबुरु की अध्यक्षता में संतालियों की 12 साल तक मैराथन बैठक हुई. हालांकि, संताली गीत में एक जगह गेलबार सिइंया, गेलबार इंदा यानी 12 दिन, 12 रात का भी जिक्र आता है. जिसके बाद संतालियों की गौरवशाली संस्कृति की रचना संपन्न हुई. इतने लंबे समय तक हुई इस बैठक के दौरान संतालियों ने इसी स्थान पर फसल उगायी और धान कूटने के लिये चट्टानों का प्रयोग किया. जिसके चिन्ह आज भी आधा दर्जन उखल(उखुड़ कांडी)के स्वरूप में यहां मौजूद हैं. पेयजल का उपयोग बगल से बहने वाली पवित्र सीता नाला का प्रयोग किया. अंत में यह नाला करीब 40 फिट नीचे गिरती है, संताली इसे सीता झरना कहते हैं. छरछरिया झरना के नाम से भी सुप्रसिद्ध है. इसके जल को संताली गाय के दूध बराबर पवित्र मानते हैं. असल मे सीता झरना का जल कई बीमारियों मसलन कब्जियत, गैस्टिक व चरम रोग आदि को लगातार सेवन से दूर कर देती है. झरना के निकट एक गुफा है, संताली इसे लुगु बाबा का छटका कहते हैं. मान्यता के अनुसार, लुगुबुरु यहीं स्नान करते थे और इसी गुफा के जरिये वे सात किमी ऊपर स्थित घिरी दोलान(गुफा) के लिये आवागमन करते थे. कहा जाता है कि लुगुबुरु के सच्चे भक्त इस गुफा के जरिये ऊपर गुफा तक पहुंच जाते थे.

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सात देवी-देवताओं की होती है पूजा

दोरबार चट्टानी स्थित पुनाय थान(मंदिर) में मरांग बुरु और फिर लुगुबुरु, लुगु आयो, घांटाबाड़ी गो बाबा, कुड़ीकीन बुरु, कपसा बाबा, बीरा गोसाईं की पूजा की जाती है. लुगुबुरु घांटाबाड़ी धोरोमगाढ़ में हर साल कार्तिक पूर्णिमा(सोहराय कुनामी) पर यहां लुगुबुरु घांटाबाड़ी धोरोमगाढ़ समिति द्वारा दोरबार चट्टानी में आयोजित होने वाले दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संताल सरना धर्म महासम्मेलन में देश के विभिन्न प्रदेशों झारखंड सहित बिहार, बंगाल, उड़ीसा, असम, मणिपुर, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के अलावा नेपाल, बांग्लादेश, भूटान आदि देशों से यहां श्रद्धालु मत्था टेकने आते हैं. महासम्मेलन में शामिल होकर अपने, धर्म, भाषा, लिपि व संस्कृति को उसके मूल रूप में संजोये रखने, प्रकृति की रक्षा पर चर्चा व संकल्प लेते हैं. यूं तो लुगुबुरु संतालियों का हजारों-लाखों वर्षों से गहरी आस्था का केंद्र है. लेकिन यहां सम्मेलन की शुरुआत 2001 में हुई. समिति अध्यक्ष बबूली सोरेन व सचिव लोबिन मुर्मू की अगुवाई में उनके साथियों ने देश-विदेश के संतालियों को एकसूत्र में बांधने को लेकर शुरू के 5-6 वर्ष जबरदस्त प्रचार-प्रसार किया. परिणामस्वरूप, आज राजकीय महोत्सव का दर्जा प्राप्त है और 10 लाख से अधिक श्रद्धालु साल के दो दिनों में यहां मत्था टेकने पहुंच रहे हैं.

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भाषा, धर्म और संस्कृति को मूल रूप में संजोये रखने पर बल

लुगुबुरु घांटाबाड़ी धोरोमगाढ़ में कार्तिक पूर्णिमा की चांदनी रात में लाखों संताली अपनी धर्म, भाषा व संस्कृति को प्राचीन काल से चली आ रही मूलरूप में संजोये रखने पर चर्चा करते हैं. विभिन्न परगनाओं से पधारे धर्मगुरु संतालियों को यह बताते हैं कि वे प्रकृति के उपासक हैं और लाखों-करोड़ों वर्षों से प्रकृति पर हीं उनका संविधान आधारित है. प्रकृति व संताली एक-दूसरे के पूरक हैं. प्रकृति के बीच हीं उनका जन्म हुआ, भाषा बनी और हमारा धर्म ही प्रकृति पर आधारित है. ऐसे में हमें अपने मूल निवास स्थान प्रकृति की सुरक्षा के प्रति सदैव सजग रहना होगा. तभी हमारा मूल संविधान भी बचा रहेगा और आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम अपने अस्तित्व के साथ जुड़े भी रह पायेंगे. जब देश-विदेश से जुटे लाखों लोग एक साथ यहां अपने धर्मगुरुओं की बातों पर अमल करने का प्रण लेते हैं तो संतालियों की सामूहिकता में जीने की परंपरा और मजबूत होती है. जिससे इस सम्मेलन की महत्ता खास हो जाती है. खास इसलिये भी कि आज जब विश्व पर्यावरण संकट से निजात पाने को गहरी चिंता में डूबा हुआ है तो संताली समुदाय हजारों-लाखों सालों से प्रकृति की उपासना कर यह भी बताता है कि उनके समस्त परम्पराओं में विश्व शांति का मंत्र निहित है.

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जाहेरगढ़(सरना स्थल) संतालियों का उपासना केंद्र

संतालियों की अपने आराध्यों की उपासना का प्रमुख धार्मिक स्थानों में जाहेरगढ़ होता है. जहां सखुआ के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं. यहां संताली अपने सभी देवी-देवताओं का आह्वान कर उनकी पूजा करते हैं. सरहुल आदि अन्य अनुष्ठान सभी जाहेरगढ़ में मनाते हैं. संताली यहां सर्वप्रथम मरांग बुरु फिर जाहेर आयो, लीट्टा गोसाईं, मोड़े को और तुरुई को देवी-देवताओं की पूजा करते हैं. खास बात यह भी है कि संताली अपनी उपासना में प्रकृति की सुरक्षा की मन्नत भी मांगते हैं. चूंकि, यहां सरना अनुयायी पूजा करते हैं. इसलिये इस स्थल को आम भाषा में सरना स्थल भी कहा जाता है.

ऐसे पहुंचें ललपनिया

ललपनिया स्थित लुगुबुरु घंटाबाड़ी धोरोमगाढ़ रांची से 90, दुमका से 218 व बंगाल के मिदनापुर से 307 किमी की दूरी पर स्थित है. ललपनिया पहुंचने के दो सड़क रूट हैं. पेटरवार- गोमिया रूट और रामगढ़-नयामोड़ रूट. इसी तरह, रेलवे के जरिये बोकारो रेलवे स्टेशन पहुंचा जा सकता है. ललपनिया से 17 किमी की दूरी पर गोमिया रेलवे स्टेशन और 33 किमी दूर रांची रोड रेलवे स्टेशन स्थित है. इन रेल रूटों से भी ललपनिया पहुंचा जा सकता है. दोनों हीं स्टेशन धनबाद-बरकाकाना रेलखंड में स्थित हैं. जिला प्रशासन नजदीकी रेलवे स्टेशनों से श्रद्धालुओं के यातायात को बस की सुविधा मुहैया कराने पर बल दे रही है.

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