नीकी नैनसी
अर्थशास्त्र शोधार्थी, जेएनयू
बदलते वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में जब नयी सरकार सत्तासीन हुई हो, तो लोगों का ध्यान और चर्चा का विषय सरकार की आर्थिक नीतियों की तरफ जाना स्वाभाविक है. नयी सरकार के आगमन में और पिछली सरकार की विफलताओं के जिन महत्वपूर्ण कारणों का जिक्र मीडिया में रहा, वो कमोबेश राजनीतिक, व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर जुड़ी विफलताओं से अधिक प्रेरित था.
अगले सप्ताह बजट के रूप में सरकार की तमाम चुनौतियों की परीक्षा होनी है. महंगाई, रोजगार और आर्थिक वृद्धि जैसे वृहद् कारकों के अलावा सरकार का ध्यान ढांचागत क्षेत्र के विकास की ओर मोड़ना भी जरूरी है. आर्थिक विकास के एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में इस क्षेत्र के विकास का मुद्दा अहम है. इसलिए बजट से पूर्व इसकी समीक्षा जरूरी हो जाती है.
पूरे विश्व में सड़क परिवहन तंत्र में अमेरिका के बाद भारत दूसरा स्थान रखता है और आंकड़ों के लिहाज से देखें, तो यहां 80 प्रतिशत परिवहन सड़कों द्वारा ही होता है. इसमें भी राष्ट्रीय राजमार्ग और एक्सप्रेस-वे आर्थिक और क्षेत्रीय समायोजन दोनों ही दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं. इसलिए नयी सरकार की आनेवाली नीतियों में इस बात की उम्मीद करना स्वाभाविक होगा कि वह इसके विकास को लेकर महत्वपूर्ण कदम उठाये. बजट में इससे जुड़े क्या प्रावधान हो सकते हैं या सरकार किन बातों पर विचार कर सकती है इसे समझने के लिए कुछ बिंदुओं पर विचार करना होगा.
पहला बिंदु सरकार द्वारा सड़कों के विकास पर होनेवाले खर्चो से है. केंद्रीय परिवहन मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि सालाना सड़क विकास पर 25 हजार करोड़ रुपये का खर्च आ रहा है. पिछले तीन पंचवर्षीय योजनाओं पर नजर डालें, तो पायेंगे कि सड़कों के विकास में कुल निवेश लगभग 16 प्रतिशत पर स्थिर बना हुआ है. दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में यह निवेश 16.6 प्रतिशत, ग्यारहवीं में 15.3 प्रतिशत, और बारहवीं में 16 प्रतिशत रहा है. और इसमें भी अगर देखें, तो सरकारी निवेश का क्रमवार प्रतिशत घटता ही रहा है.
10वीं योजना में सरकारी निवेश 95 प्रतिशत था, जो 11वीं में 66 प्रतिशत और 12वीं में 60 प्रतिशत पर रुक गया. वहीं निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ती गयी है. निजी क्षेत्र की भागीदारी सबसे ज्यादा यूपीए के पहले पांच वर्षो यानी 2004 से 2009 के बीच रही है. 2004-05 में सड़क परिवहन पर जीडीपी का केवल 0.29 प्रतिशत ही आवंटित किया गया, जबकि उससे पिछली सरकार के बजट में यह आवंटन 0.33 प्रतिशत था. 2012-13 के बजट में सड़क परिवहन तंत्र के लिए तकरीबन 31,672 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया, जिसमें जीडीपी का 0.56 प्रतिशत था. 2004 से लेकर आखिरी बजट तक सरकारी निवेश जीडीपी के आधे प्रतिशत तक ही रहा.
एनडीए सरकार ने भी निजीकरण को ही बढ़ावा दिया था. यूपीए सरकार ने 10 वर्षो के कार्यकाल में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर आधारित पीपीपी (पब्लिक- प्राइवेट-पार्टनरशिप) मॉडल को आगे बढ़ाया. चूंकि सड़क निर्माण पर खर्चो का सबसे बड़ा भाग पेट्रोल और डीजल जैसे ईंधनों पर लगे शुल्क, परिवहन शुल्क और अन्य अधिभार से पूरे किये जाते हैं.
देहात में सड़कों का विकास
हमारी सरकार अब तक विश्व बैंक से 1,965 मिलियन डॉलर का और एशियाइ विकास बैंक से 1,605 मिलियन डॉलर का ऋण इस मद में ले चुकी है. लेकिन, अभी तक लक्षित 55,000 किमी में से केवल 19,000 किमी सड़क निर्माण का कार्य पूरा हो पाया है. एनएचडीपी के अलावा वर्ष 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ‘प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना’ शुरू की गयी थी, जिसका लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क का विकास और उसे राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ना था.
उसके बाद 2004 में यूपीए सरकार द्वारा 14,000 किलोमीटर सड़क को चार और छह लेन में बदलने और 10,000 किलोमीटर अतिरिक्त सड़क निर्माण के लिए प्रधानमंत्री भारत जोड़ो परियोजना शुरू की गयी. 40,000 करोड़ रुपये की लागत वाली इस योजना को पीपीपी के तहत बीओटी (बिल्ड, ऑपरेट, ट्रांसफर) मॉडल पर शुरू किया गया. 12वीं योजना के अंतर्गत सरकार ने सड़क परिवहन के लिए 1,42,000 करोड़ का व्यय सुनिश्चित किया है, जो मुख्यत: राजमार्गो को जोड़ने और उनको चार-छह लेन बनाने के लिए खर्च किये जायेंगे. लेकिन, सड़कों की हालत संतोषजनक नहीं है.
देश के 25 प्रतिशत गांवों में अभी भी कोई पक्की सड़क नहीं है, राजमार्गो से जोड़ने की बात तो बहुत दूर है. तकरीबन बीस लाख किलोमीटर में से दस लाख किलोमीटर सड़कों की हालत खस्ताहाल बनी हुई है, जबकि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के हिसाब से सरकर हर साल 25,000 करोड़ रुपये खर्च करती है.
निर्माण का पीपीपी मॉडल
दूसरा बिंदु परिवहन निर्माण के क्षेत्र में सरकारी और निजी क्षेत्र की भागीदारी के मॉडल अर्थात पीपीपी से है. पिछले दस वर्षो में पीपीपी मॉडल पर परिवहन में अधिक निवेश हुआ है. जहां 10वीं पंचवर्षीय योजना में निजी निवेश मात्र पांच प्रतिशत था, वहीं 11वीं योजना में यह 34 प्रतिशत तक पहुंच गया. इस दौरान योजना आयोग की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही. नतीजन, यूपीए के इन 10 वर्षो में पीपीपी मॉडल के तहत बीओटी को पूरी तरह अमल में लाया गया. कई प्रोजेक्ट्स निजी क्षेत्र को सौंपे गये. मूल्यांकन की दृष्टि से देखें, तो इसका परिणाम बहुत संतोषजनक नहीं रहा, क्योंकि निजी क्षेत्रों ने वित्तीय अनियमितताओं एवं अन्य कई संस्थागत परेशानियों (भूमि अधिग्रहण की समस्या आदि) और अनुमानित लाभ न मिलने की वजह से हाथ खींचने शुरू कर दिये. अत: निर्माण का भार फिर सरकार पर आ गया. इन योजनाओं पर वर्तमान में सरकार द्वारा अनुमानित व्यय 40,000 करोड़ रुपये है.
असुरक्षित सड़क परिवहन
तीसरा बिंदु यातायात और सड़क परिवहन की सुरक्षा को लेकर है. डब्ल्यूएचओ द्वारा 2013 में प्रकाशित ‘ग्लोबल स्टेटस रिपोर्ट ऑन रोड सेफ्टी’ के हिसाब से ढाई लाख से ज्यादा लोग हर साल भारत में सड़क दुर्घटना का शिकार होते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, भारत का सड़क परिवहन तंत्र असुरक्षित है और इस पर ध्यान देने की बहुत जरूरत है. चूंकि भारत में तकरीबन 80 प्रतिशत से ज्यादा परिवहन सड़क के माध्यम से होता है और उसमें भी अकेले 40 प्रतिशत तक राष्ट्रीय राजमार्गो द्वारा होता है, जबकि ये राजमार्ग और एक्सप्रेस-वे पूरे सड़क परिवहन तंत्र का केवल दो प्रतिशत ही हैं, और उसमें से तकरीबन 19 फीसदी ही चार लेन में विकसित है. हर साल 10 फीसदी की दर से वाहन बढ़ रहे हैं, लेकिन उस अनुपात में सड़कों की चौड़ाई नहीं बढ़ रही है. खराब सड़कों, जीपीएस और आधुनिक इंतजामों के अभाव में बढ़ते यातायात को नियंत्रित करना मुश्किल हो गया है.
आगामी बजट में सरकार को इस क्षेत्र से जुड़ी पुरानी नीतियों पर फिर से विचार करने की जरूरत होगी. सबसे पहला तो यही कि परिवहन तंत्र के लिए निजी क्षेत्र की तरफ उम्मीद न लगा कर योजनाओं के कार्यान्वयन की नीति पर विचार करना होगा, जिसमें सरकारी भागीदारी को वापस बढ़ाना होगा. सड़कों का अधिकतम विकास निजी क्षेत्र की भागीदारी से पहले हुआ है, और उनके आने के बाद से कम ही होता आया है. इससे जुड़े आंकड़े परिवहन मंत्रालय की रिपोर्ट में मिल जाते हैं.
जहां 11वीं योजना में सड़कों के विकास की दर 20 फीसदी होनी चाहिए, वहां यह मात्र छह फीसदी रही.
दूसरी बात यह कि राज्य सरकारों को जिम्मेवारियां लक्ष्य के तौर पर सौंपी जायें कि अपने राज्यों की सड़क परिवहन व्यवस्था को, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों को किस तरह मुख्य राजमार्गो से जोड़ा जाये. इसके लिए राजनीतिक अवरोध, भूमि अधिग्रहण की समस्या या अन्य क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान के लिए राज्य स्तर पर संस्तुतियां बनायी जायें, खासतौर से नक्सल और उत्तर-पूर्वी राज्यों में. नयी तकनीक और सुरक्षा संबंधी उपायों के लिए होनेवाले वित्तीय व्यय को सकल बजेटरी सपोर्ट के तहत लाया जा सकता है, जिसमें राज्य सरकारें भी अपना अंश निर्धारित करें, तो बेहतर होगा.
सड़क निर्माण के लिए बजटीय प्रावधान
रोड सेक्टर में भारी निवेश की जरूरत को ध्यान में रखते हुए योजना आयोग धनराशि की सीमा तय करता है. 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए योजना आयोग ने 2,07,603 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है, जिसमें ग्रॉस बजटरी सपोर्ट की सीमा 1,42,769 करोड़ और आइइबीआर की सीमा 64,834 करोड़ निर्धारित की गयी है.
– योजना आयोग ने वर्ष 2013-14 के वार्षिक बजट में सड़क मार्गो के विकास के लिए 37,300 करोड़ रुपये के आवंटन की घोषणा की थी, जिसमें ग्रॉस बजटरी सपोर्ट के लिए 23,300 करोड़ रुपये और इंटरनल एंड एक्स्ट्रा बजटरी रिसोर्स (आइइबीआर) के लिए 14,000 करोड़ रुपये तय किये गये थे.
– राष्ट्रीय राजमार्गो का विकास और मरम्मत का कार्य एजेंसी के द्वारा किया जाता है. जिसमें भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण (एनएचएआइ), स्टेट पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट (पीडब्ल्यूडीएस) और बॉर्डर रोड्स ऑर्गनाइजेशन (बीआरओ) केंद्र सरकार की मुख्य एजेंसी है.
सड़क परिवहन और राष्ट्रीय राजमार्ग
देशभर में फैले राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण और मरम्मत की रूपरेखा केंद्र सरकार द्वारा तैयार की जाती है. सड़कों मार्गो के संजाल में राष्ट्रीय राजमार्गो का हिस्सा भले ही 1.7 प्रतिशत हो, लेकिन 40 प्रतिशत सड़क यातायात इन्हीं राष्ट्रीय राजमार्गो पर निर्भर है. सड़क परिवहन एवं राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय इन मार्गो के निर्माण और विकास का खाका तैयार करता है. मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग विकास योजना के तहत विभिन्न चरणों में 54,500 किलोमीटर सड़क मार्ग का निर्माण किया जा चुका है.
– वित्त वर्ष 2013-14 में 23,300 करोड़ रुपये की लागत से 8,270 किमी राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण व मरम्मत का लक्ष्य रखा गया था, जिसमें 100 नये पुलों के निर्माण और चार बाइपास मार्गो के निर्माण की बात कही थी.
– उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के 88 जिला मुख्यालयों को राष्ट्रीय राजमार्गो से जोड़ने के लिए तीन चरणों में स्पेशल एक्सीलरेटेड रोड डेवलमेंट प्रोग्राम के तहत 10,141 किमी राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण व चौड़ीकरण की योजना.
– फरवरी, 2009 में वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित आठ प्रदेशों (आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िशा और उत्तर प्रदेश) के 34 जिलों में 7300 करोड़ रुपये की लागत से 5,477 किलोमीटर (1126 किलोमीट राष्ट्रीय राजमार्ग और 4351 प्रदेशीय मार्ग) मार्गो के निर्माण की घोषणा की गयी थी. वर्ष 2013-14 में इस मद में1800 करोड़ रुपये बजट का प्रावधान किया गया था. इसके अलावा नवंबर, 2010 में ओड़िशा में 600 किलोमीटर के प्रदेशीय मार्ग (विजयवाड़ा-रांची कॉरिडोर के तहत) को 1200 करोड़ रुपये की लागत से विकसित करने की घोषणा की गयी थी.
– मंत्रालय सेंट्रल रोड फंड (सीआरएफ) के तहत प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित राज्य को प्रदेशीय मार्गो व अन्य सड़क मार्गो के निर्माण के लिए इंटर-स्टेट कनेक्टिविटी एंड इकोनॉमिक इंपार्टेंस स्कीम के तहत फंड मुहैया कराया जाता है.
– प्रदेश सरकारों/रेल मंत्रालय के अफसरों को राष्ट्रीय राजमार्ग विकास योजना को लागू करने व भूमि अधिग्रहण/वन/प्रदूषण आदि संबंधी मामलों से निपटने के लिए नोडल ऑफिसर के रूप में नियुक्त किया जाता है.
Disclaimer: शेयर बाजार से संबंधित किसी भी खरीद-बिक्री के लिए प्रभात खबर कोई सुझाव नहीं देता. हम बाजार से जुड़े विश्लेषण मार्केट एक्सपर्ट्स और ब्रोकिंग कंपनियों के हवाले से प्रकाशित करते हैं. लेकिन प्रमाणित विशेषज्ञों से परामर्श के बाद ही बाजार से जुड़े निर्णय करें.