क्या है गूगल का ”फिनलैंड” कोड !

– मुकुंद हरि गूगल के एग्जीक्यूटिव प्रेसिडेंट एरिक श्मिट और पूर्व वाइस प्रेसिडेंट जोनाथन रोसेनबर्ग ने गूगल के काम करने के तरीकों पर अपनी किताब ‘हाउ गूगल वर्क्स’ में कई रोचक जानकारियां दी हैं, जिनसे गूगल के काम-काज के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है. इस किताब में बताया गया है कि किस तरह […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 12, 2014 5:13 PM

– मुकुंद हरि

गूगल के एग्जीक्यूटिव प्रेसिडेंट एरिक श्मिट और पूर्व वाइस प्रेसिडेंट जोनाथन रोसेनबर्ग ने गूगल के काम करने के तरीकों पर अपनी किताब ‘हाउ गूगल वर्क्स’ में कई रोचक जानकारियां दी हैं, जिनसे गूगल के काम-काज के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है. इस किताब में बताया गया है कि किस तरह जब श्मिट इस कंपनी में सीइओ के तौर पर आये थे तो गूगल के सारे अधिकारी इन्टरनेट और कंप्यूटर की दुनिया में माइक्रोसॉफ्ट के फैलते जा रहे एक छात्र राज्य को लेकर चिंतित और परेशान थे.
क्या था गूगल का ‘फिनलैंड’ कोड !
श्मिट और रोसेनबर्ग ने अपनी इस किताब में एक रोचक खुलासा करते हुए एक जगह लिखा है कि उस जमाने में जब गूगल की माइक्रोसॉफ्ट को लेकर चिंता का दौर चल रहा था, तब गूगल के कर्मचारी अपनी इस प्रमुख प्रतियोगी कंपनी को उसके असली नाम से न बुलाकर उसकी जगह एक खास कोड वर्ड का इस्तेमाल करते थे. श्मिट के मुताबिक गूगल में माइक्रोसॉफ्ट को ‘फिनलैंड’ के कोड नेम से संबोधित किया जाता था.
हालांकि, श्मिट ने अपनी किताब के इस पन्ने के नीचे फुटनोट में ये स्पष्ट करते हुए लिखा है कि असल में फिनलैंड वो कोड वर्ड नहीं था जिसका उपयोग गूगल के लोग माइक्रोसॉफ्ट के लिए किया करते थे बल्कि फिनलैंड उस असली कोड नेम की जगह प्रतीकात्मक रूप से इस किताब में लिखा गया एक अन्य कोड वर्ड है.
गूगल के वर्त्तमान और पूर्व अधिकारियों की ये किताब कॉरपोरेट जगत के लोगों के लिए काफी जानकारी भरी मानी जा रही है. इस किताब से ये अंदाजा लगता है कि गूगल आखिर किन वजहों से दुनिया भर में नौकरी करने वालों के लिए सबसे श्रेष्ठ संस्थानों में से एक मानी जाती है!
हालांकि इस किताब के नाम को देखकर आपको ऐसा भ्रम हो सकता है कि शायद इसमें गूगल की तकनीकी कार्यशैली के बारे में लिखा होगा लेकिन हकीकत में ये किताब गूगल कंपनी के अन्दर उसके कर्मचारियों और इंजीनियरों के काम करने के तौर-तरीकों और वहां की संस्थागत संस्कृति पर प्रकाश डालती है जो आज के सन्दर्भ में किसी भी कॉरपोरेट कंपनी के लिए मार्गदर्शन का काम कर सकती है.
जानकारों की राय में ये किताब एक मैनेजमेंट ग्रंथ साबित हो सकती है और दुनिया भर में लोग इस बात को समझ सकते हैं कि गूगल जैसी सफल कम्पनी कैसे बनायी और चलायी जा सकती है.
क्या अलग है गूगल में !
श्मिट और रोसेनबर्ग लिखते हैं कि जब वो लोग गूगल में आये तब उन्हें अपने पिछली कंपनियों में नौकरियों के अनुभवों के आधार पर लगा था कि शायद गूगल भी उन्ही कंपनियों की तरह होगी, जहां उन्होंने पहले काम किया था लेकिन यहां आने के बाद उन्हें बिलकुल अलग अहसास हुए. उन्हें मालूम हुआ कि गूगल में काम को लेकर कर्मचारियों को अप्रत्याशित स्वतंत्रता थी और गूगल के लोग यहां सिर्फ नौकरी करने को अपना ध्येय न मानकर, इसे अपने सीखने का माध्यम मानकर काम कर रहे थे. इतना ही नहीं बल्कि अन्य कंपनियों में मैनेजमेंट की जो कर्यशैलियाँ होती थी, उसे गूगल में सम्मानजनक तरीके से नहीं देखा जाता था. इन्हीं अनुभवों के आधार पर श्मिट कहते हैं कि बीसवीं सदी में उन्होंने जो भी मैनेजमेंट के ज्ञान सीखे थे, वो सारे ज्ञान गूगल में आने के बाद बेकार साबित हो गए क्योंकि गूगल की कार्यशैली अपने आप में बिलकुल अनूठी थी.
क्या है गूगल का मैनेजमेंट मन्त्र !
गूगल में अन्य कंपनियों की तरह मैनेजमेंट अपने कर्मचारियों पर हावी नहीं रहता बल्कि यहां मैनेजमेंट का मन्त्र होता है कि अपने कर्मचारियों पर भरोसा करना और उन्हें उनके निर्णयों के अनुसार काम करने की अनुमति देना ताकि वो अपना लक्ष्य जल्द से जल्द हासिल कर सकें. यही नहीं, अगर किसी कर्मचारी को उसके काम में असफलता मिलती है तो भी गूगल में उसको इस वजह से हताश नहीं होने दिया जाता. शायद यही वो सबसे बड़ा मन्त्र है जिसने गूगल को कामयाबी के शिखर पर बैठाया है.
कैसी है गूगल की चयन प्रक्रिया !
किताब में एक जगह लेखकों ने ये भी बताया है कि गूगल में नौकरी के लिए चयन प्रक्रिया भी काफी अलग है. यहां अन्य कंपनियों की तरह लम्बे-चौड़े इंटरव्यू नहीं लिए जाते बल्कि उम्मीदवार की अंदरूनी प्रतिभा और उसकी सीखने की भूख को उसके चयन का आधार माना जाता है. इसके अलावा सैलरी बढ़ने या प्रमोशन के लिए भी किसी एक व्यक्ति की सिफारिश की जगह यहां कर्मचारियों की कमिटी आपस में मिलकर इन बातों का निर्णय करती हैं, जो पूरी तरह किसी कर्मचारी के व्यक्तिगत प्रदर्शन पर आधारित होता है.
इसके अलावा इस किताब में गूगल के इतिहास में घटी एक रोचक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि साल 2010 में गूगल के तत्कालीन सीनियर वाइस प्रेसिडेंट विक गंडोत्रा ने सोशल नेटवर्क फेसबुक की बढ़ती लोकप्रियता से निबटने के लिए ‘गूगल प्लस’ को मैदान में उतारा था लेकिन दुर्भाग्य से ‘गूगल प्लस’ सोशल नेटवर्किंग के मैदान में फेसबुक के सामने टिक नहीं पाया और इस असफलता की वजह से विक गंडोत्रा जैसे दूरदर्शी और प्रशंसनीय व्यक्तित्व को गूगल छोड़ना पड़ा.
कुल मिलकर ‘हाउ गूगल वर्क्स’ नाम की ये किताब वाकई ये दिखाती है कि गूगल कैसे काम करता है और इसकी सफलता की असली वजह क्या है.

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