Explained : आरबीआई गवर्नर करते हैं नीतिगत ब्याज दर का ऐलान, क्या आप जानते हैं कि कौन तय करता है रेपो रेट?

द्विमासिक समीक्षा तो आम तौर पर दो महीने के अंतराल पर की जाती है, लेकिन विशेष परिस्थितियों में यह एक महीने के अंतराल में कर दी जाती है. जैसे, मई 2022 में की गई थी. इससे पहले, आरबीआई ने अप्रैल महीने में नीतिगत ब्याज दर को तय करने के लिए द्विमासिक समीक्षा की थी.

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 5, 2022 8:22 AM

नई दिल्ली : भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर शक्तिकांत दास आज नीतिगत ब्याज दरों यानी रेपो रेट का ऐलान करेंगे. भारत के केंद्रीय बैंक ने मई महीने में रेपो रेट में 0.40 फीसदी या 40 बेसिस प्वाइंट और जून में 0.50 फीसदी या 50 बेसिस प्वाइंट की बढ़ोतरी की थी. इन दो महीने के दौरान आरबीआई ने रेपो रेट में करीब 0.90 फीसदी या फिर 90 बेसिस प्वाइंट तक का इजाफा कर दिया है. इस बार भी जब 3 अगस्त को आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की बैठक शुरू हुई, तो तमाम रेटिंग, बैंकिंग, रिसर्च और वित्तीय एजेंसियों ने रेपो रेट में बढ़ोतरी होने का अनुमान जाहिर किया है. इस बीच, सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि आरबीआई गवर्नर रेपो रेट का ऐलान तो करते हैं, लेकिन इसे तय कौन करता है, क्या आप जानते हैं? नहीं, तो आइए जानते हैं पूरी बात…

क्या है रेपो रेट

रेपो रेट वह ब्याज दर है, जिस पर भारत में राष्ट्रीयकृत सरकारी और निजी क्षेत्र के बैंक आरबीआई से पैसा उधार लेते हैं. महंगाई में इजाफा होने के बाद आरबीआई रेपो रेट में इजाफा करता है, महंगाई दर में गिरावट होने पर इसे कम करता है. वहीं रिवर्स रेपो दर वह ब्याज दर है जिस पर सरकारी और निजी क्षेत्र बैंक आरबीआई के पास अपनी जमा राशि रखते हैं. रेपो रेट का मतलब यह है कि जब वाणिज्यिक बैंकों को धन की कमी का सामना करना पड़ता है, तो वे आरबीआई द्वारा अनुमोदित प्रतिभूतियों जैसे ट्रेजरी बिल (उनकी वैधानिक तरलता अनुपात सीमा से अधिक) को बेचकर आरबीआई से एक दिन के लिए लोन लेते हैं.

रेपो रेट के आधार पर लोगों को लोन देते हैं बैंक

भारत के सरकारी और निजी क्षेत्र के व्यावसायिक बैंक रेपो रेट के आधार पर ही आम लोगों को खुदरा लोन उपलब्ध कराते हैं. यदि आरबीआई रेपो रेट बढ़ाता है, तो बैंकों के लिए इससे उधार लेना मुश्किल हो जाता है, अर्थव्यवस्था में नकदी के प्रवाह को कम करता है, महंगाई को रोकता है. रेपो रेट में कमी से अर्थव्यवस्था में नकदी के प्रवाह में वृद्धि होती है, क्योंकि लोन सस्ता हो जाता है और अर्थव्यवस्था में खर्च बढ़ जाता है. यह मंदी को दूर करने का एक तरीका है.

क्या है द्विमासिक समीक्षा

आरबीआई इसे कम करने या बढ़ाने के लिए प्रत्येक दो महीने के अंतराल पर द्विमासिक समीक्षा करता है. यह समीक्षा आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की बैठक में की जाती है. एमपीसी की बैठक आम तौर पर तीन दिनों के लिए आयोजित होता है, लेकिन विशेष परिस्थिति में यह एक दिन में भी समाप्त हो जाता है. इसी प्रकार, द्विमासिक समीक्षा तो आम तौर पर दो महीने के अंतराल पर की जाती है, लेकिन विशेष परिस्थितियों में यह एक महीने के अंतराल में कर दी जाती है. जैसे, मई 2022 में की गई थी. इससे पहले, आरबीआई ने अप्रैल महीने में नीतिगत ब्याज दर को तय करने के लिए द्विमासिक समीक्षा की थी. इस हिसाब से तो जून में द्विमासिक समीक्षा होनी चाहिए थी, लेकिन आरबीआई ने अर्थव्यवस्था में नकदी के प्रवाह को रोकने और लोन को महंगा करके खर्च को कम करने के लिए मई में ही नीतिगत ब्याज दरों की समीक्षा के लिए एमपीसी की बैठक बुला ली और ब्याज दरों में 0.40 फीसदी या 40 बेसिस प्वाइंट की बढ़ोतरी कर दी.

रेपो रेट कौन तय करता है

आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति ही रेपो दरों को तय करती है. मौद्रिक नीति समिति में इस समय में 16 सदस्य हैं. इस समिति के पदेन अध्यक्ष खुद आरबीआई गवर्नर होते हैं, जो मौजूदा समय में शक्तिकांत दास हैं. यह समिति महंगाई और राजकोषीय अनुमानों के आधार पर रेपो दर तय करती है. रेपो रेट तय करने के लिए गठित मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) का प्राथमिक उद्देश्य महंगाई को नियंत्रण में रखना और यह सुनिश्चित करना है कि यह लक्ष्य सीमा के अंदर रहे.

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रेपो रेट आम लोगों को कैसे प्रभावित करता है

आरबीआई ने बाजार से पैसे की अतिरिक्त आपूर्ति को दूर करने के लिए रेपो रेपो में वृद्धि की है. यदि आरबीआई रेपो रेट बढ़ाता है, तो इसका अर्थ है कि वाणिज्यिक बैंकों को अधिक ब्याज देना पड़ेगा. इसके लिए वे रेपो रेट के रूप में बढ़ाई गई दरों को आम लोगों के लोन में ट्रांसफर कर देते हैं. इसका मतलब है कि बैंक होम लोन, पर्सनल लोन, कार लोन की ब्याज दरों में इजाफा कर देते हैं. साथ ही, बैंकों के पास ज्यादा से ज्यादा डिपोजिट आए, इसके लिए वे बचत खाता, फिक्स डिपोजिट एवं टर्म डिपोजिट की ब्याज दरों में भी इजाफा कर देते हैं, ताकि लोग ज्यादा ब्याज के लालच में अधिक से अधिक बैंकों में अपने पैसों को जमा कराएं. इससे बाजार में नकदी का प्रवाह कम हो जाता है.

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