नागेश्वर-भगवान् का स्थान गोमती है. यहां ज्योतिर्लिंग की स्थापना के संबंध में यह इतिहास है कि एक सुप्रिय नामक वैश्य था, जो बड़ा धर्मात्मा, सदाचारी और शिवजी का अनन्य भक्त था. एक बार जब वह नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था, अकस्मात् दारुक नाम के एक राक्षस ने आकर उस नौकापर आक्रमण किया और उसमें बैठे हुए सभी यात्रियों को अपनी पुरी में ले जाकर कारागार में बंद कर दिया. पर सुप्रिय की शिवार्चना वहां भी बंद नहीं हुई. वह तन्मय होकर शिवाराधना करता और अन्य साथियों में भी शिव-भक्ति जागृत करता रहा. संयोग से इसकी खबर दारुक के कानों तक पहुंची और वह उस स्थान पर आ धमका.
सुप्रिय को ध्यानावस्थित देखकर ”रे वैश्य ! यह आंख मूंदकर तू कौन-सा षड्यन्त्र रच रहा है ? यह कह कर उसने एक जोर की डांट बतलायी और इतने पर भी सुप्रिय की समाधि भंग न होते देख उसने अपने अनुचरों को उसकी हत्या करने का आदेश दिया . परन्तु सुप्रिय इससे भी विचलित नहीं हुआ. वह भक्तभयहारी शिवजी को ही पुकारने लगा. फलतः उस कारागार में ही भगवान् शिव ने एक ऊंचे स्थान पर एक चमकते हुए सिंहासन में स्थित ज्योतिर्लिंगरूप से दर्शन दिया.
दर्शन ही नहीं, उन्होंने उसे अपना पाशुपतास्त्र भी दिया और अन्तर्धान हो गये . इस पाशुपतास्त्र से समस्त राक्षसों का संहार करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया . भगवान् शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंगका नाम नागेश पड़ा. इसके दर्शन का बड़ा माहात्म्य है . कहा है कि जो आदर पूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य को सुनेगा वह सामन पापों से मुक्त होकर समस्त ऐहिक सुखों को भोगता अन्त में परमपद को प्राप्त होगा.
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