डॉ मोतीलाल द्वारी. योग पंचक : बाबा बैद्यनाथ मंदिर के शिखर पर स्थित पंचशूल पांच योग पंचक को जानने की प्रेरणा देता है. वे पांच योग पंचक हैं- मंत्र योग, स्पर्श योग, भाव योग, अभाव योग और पांचवां महायोग. जिसकी दूसरी वृत्तियों का निरोध हो गया है, ऐसे चित्त की भगवान शिव में निश्चल वृत्ति स्थापित हो जाती है. संक्षेप में इसी को ”योग” कहा गया है.
चित्त वृत्ति निरोध: योग : योग कर्म कौशलम
मंत्रयोग : मंत्रजप के अभ्यास वश मंत्र के वाच्यार्थ में स्थित हुई विक्षेपरहित मन की वृत्ति ही मंत्र योग है.
स्पर्श योग : मन की यही वृत्ति जब प्राणायाम को प्रधानता दे तो उसका नाम स्पर्श योग है.
भाव योग : यही स्पर्श योग जब मंत्र के स्पर्श से रहित हो जाता है तो भाव योग कहलाता है.
अभाव योग : जिसमें संपूर्ण संसार के रूपमात्र का अवयव तिरोहित या विलीन हो जाता है, तब उसे ”अभाव योग” की संज्ञा दी जाती है. इस अभाव योग में सद वस्तु का भी भान नहीं होता. एक मात्र उपाधि शून्य शिव स्वभाव का ही चिंतन होता है.
महायोग : जब मन की वृत्ति संपूर्ण भाव से शिवमयी हो जाती है, इस अवस्था को महायोग कहा जाता है. जिसका मन लौकिक और पारलौकिक विषयों की ओर से सब प्रकार से विरक्त हो जाता है, योग का वास्तविक अधिकार ऐसे व्यक्ति को ही मिलता है. मन के सांसारिक वस्तुओं से विरक्त होने के दो महत्वपूर्ण उपाय हैं. पहला कि लौकिक और पारलौकिक विषयों के दोषों को भी भली-भांति जाने लें और दूसरा ईश्वर के गुणों का सदादर्शन करता रहे. पंचशूल बैद्यनाथ से योग कराने के लिए इन पांच योगों को जानने पर बल देता है.
प्रपंच पंचक : पंचशूल संकेत देता है कि प्रकृति में भासित और पांच प्रकार के पंचकों को प्रपंच पंचक कहा गया है. पहला पंचक मह तत्व, सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण और अहंकार है. दूसरा पंचक- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध है. तीसरा पंचक – आकाश, वायु, अग्नि,जल और पृथ्वी है. चौथा पंचक- कान, त्वचा, आंख, जीभ और नाक है. पांचवां पंचक – हाथ, पैर, वाणी, पायु और उपस्थ है. ये सभी पांचों पंचक जगत प्रपंच कहलाते हैं और इन्हें जड़ प्रकृति या माया नाम दिया गया है. इन जड़ वृत्तियों के शमन को ही ज्ञान कहते हैं. बिना ठीक से जाने समझे, अनुभूत किये इस जगत प्रपंच को त्याज्य मानकर त्याग देना भी अज्ञान है. इस प्रपंच रूप अंधकार को हटाने के लिए ज्ञान का दीपक जलाना पड़ता है. इस ज्ञान ज्योति के हृदय में उदय लेते ही सारे अज्ञान अंधकार क्षण भर में मिट जाते हैं.
प्रपंचकर्ता शिव ने अपने आधेय रूप से विद्यमान प्रपंच को जलाकर भस्म बनाया और उसका सार तत्व ग्रहण कर लिया. प्रपंच को दग्ध कर शिव ने उसके भस्म को अपने शरीर में लगाया है. शिव ने भभूत पोतने के रूप में जगत के सार तत्व को ही ग्रहण किया है. आकाश के सार तत्व से केश, वायु के सार तत्व से मुख मंडल, अग्नि के सार तत्व से हृदय, जल के सार तत्व से कटि प्रदेश और पृथ्वी के सार तत्व को घुटनों में धारण किया है. अपने ललाट में शिव ने जो त्रिपुंड धारण कर रखा है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का सार तत्व है. भगवान शिव ने ही प्रपंच के सारे सार सर्वस्व को जगत के अभ्युदय का हेतु मानते हुए अपने वश में किया है. शिव के अनुयायी उन्हीं का अनुसरण करते हुए भस्म धारण करते हैं. जगत प्रपंच राख है. जिस प्रपंच के पीछे मनुष्य भाग रहा है. वह सिर्फ राख है. जगत की सच्चाई राख है. बारंबार अग्नि द्वारा यह जगत जलाया जा रहा है. इससे यह भस्मसात हो जाता है.
भस्म अग्नि का वीर्य है. जो इस प्रकार भस्म के श्रेष्ठ स्वरूप को जानकार अग्नि इत्यादि मंत्रों द्वारा भस्म से स्नान करता है, वह पाशबद्ध जीव पाश मुक्त होकर पशुपति स्वरूप हो जाता है. जो शिवाग्नि से शरीर को दग्ध करके, प्रपंच को दग्ध करके शक्ति स्वरूप सोमामृत से योग मार्ग के द्वारा इसे अप्लावित करता है, वह अमृत स्वरूप होकर अग्निषोमात्कम जगत को त्याग भाव से ग्रहण जीवन मुक्त हो जाता है. जो भस्म लगाते हैं, वे वीर्यवान और तेजस्वी हैं. उनके सारे दोष दग्ध हो जाते हैं. जो भस्ममय से प्रकाशवान है , भस्ममय त्रिपुंड धारण करता है, भस्म से स्नान करता है, वह भस्म निष्ठ है. भूत, प्रेत, पिशाच, दुसहरोग भी भस्म निष्ठ से दूर भागते हैं. शरीर को भासित करता है. इसलिए भसित कहा गया है. पापों का भक्षण करने के कारण भस्म है. भूति या ऐश्वर्य कारक होने से भूति या विभूति है. रक्षा करने वाला होने के कारण इस विभूति का नाम रक्षा भी है. इस अर्थ में यह भगवान भव की भूति है. भगवान शंकर का ऐश्वर्य है. दूसरे अर्थ में यह भव या संसार की भूति है,जो वस्तुत: राख है. जिस जगत प्रपंच के पीछे हम भाग रहे हैं, वह सिर्फ राख है. पंचशूल प्रपंच पंचक के माध्यम से यह ज्ञान देता है.
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