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चिताभूमि देवघर में है भस्म का त्रिपुंड लगाने की परंपरा, जानें कैसे हुई थी कामनालिंग की स्थापना

चिताभूमि के नाम से प्रसिद्ध शिव की नगरी में त्रिपुंड भस्म शिव का प्रतीक है. मनोकामना लिंग बाबा बैद्यनाथ रावणेश्वर बैद्यनाथ के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता है कि लंकाधिपति रावण द्वारा लंका ले जाने के क्रम में हरितकी वन में भगवान विष्णु के द्वारा इस लिंग की स्थापना की गयी थी.

सुबोध झा (शिक्षाविद). झारखंड की सांस्कृतिक राजधानी बैद्यनाथ धाम देवघर अपनी विविध विरासतों के लिए आधुनिक विश्व में एक विशिष्ट पहचान रखती है. भौगोलिक दृष्टिकोण से यह गोंडवाना रेंज का पठारी क्षेत्र जो अपनी जैव विविधता व प्राकृतिक संपदा के लिए उत्कृष्ट क्षेत्र के रूप में जाना जाता था. विकास के क्रम में प्राकृतिक विरासतों का विलुप्त होना एक सामान्य-सी घटना प्रतीत होती है, लेकिन अगर इसके प्रभावों को बारीकी से देंखें तो जल, हरियाली और निरोगी आबोहवा का यह क्षेत्र अपने मूल स्वरूप को प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है.

चिताभूमि के नाम से प्रसिद्ध शिव की नगरी

देवघर संतालपरगना क्षेत्र का प्रमुख शहर है, जो सनातनी आस्था के केंद्र बिंदु के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है. इस स्थल के प्रसिद्धि का मूल कारण द्वादश ज्योतिर्लिंग कामनालिंग बाबा बैद्यनाथ का अवस्थित होना है. यह क्षेत्र ‘अनोखी काशी’ के नाम से भी जाना जाता है, जहां एक ही प्रांगण में शिव, शक्ति, विष्णु और ब्रह्मा की भी पूजा होती है, जो शायद पूरे ब्रह्मांड में और कहीं नहीं होता है. चिताभूमि के नाम से प्रसिद्ध शिव की नगरी, यहां के तीर्थ पुरोहितों के द्वारा भस्म लगाने की परंपरा शायद इसी कारण शुरू हुआ हो. त्रिपुंड भस्म शिव का प्रतीक, वहीं भूमध्ये सिंदूर का टीका मां भगवती का परिचायक है. इक्क्यावन शक्ति पीठ में से यह भूमि हृदया पीठ के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता है कि सती के शव के विग्रह के उपरांत माता का हृदय इसी स्थान पर गिरा था. हृदया पीठ होने के कारण ऐसी मान्यता है कि यहां के लोग हृदय से सरल होते हैं.

रावणेश्वर बैद्यनाथ के नाम से प्रचलित है कामनालिंग

मनोकामना लिंग बाबा बैद्यनाथ रावणेश्वर बैद्यनाथ के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता है कि लंकाधिपति रावण द्वारा लंका ले जाने के क्रम में हरितकी वन में भगवान विष्णु के द्वारा इस लिंग की स्थापना की गयी थी. ऐसी भी मान्यता है कि कुछ प्राचीन मंदिरों का निर्माण देव शिल्पी विष्वकर्मा के द्वारा किया गया था. प्रमुख इतिहास कार राजेंद्र लाल मित्र (1873) ने अपनी पुस्तक भारत के प्राचीन मंदिर में बैद्यनाथ धाम का वर्णन करते हुए लिखा है कि यह मंदिर एक बड़े से चट्टान पर अवस्थित है जिसके उत्तर पश्चिम में एक छोटी पहाड़ी नंदन पहाड़, पांच मील पूर्व में एक बड़ी पहाड़ी त्रिकुट पहाड़ और दक्षिण पूर्व में अनेक पहाड़ी जैसे फुलजोरी, जालवे व अन्य पहाड़ियां अवस्थित हैं. बैद्यनाथ मंदिर 22 मंदिरों का समूह है जिसके केंद्र बिंदु में बैद्यनाथ मंदिर विराजमान है. मुख्य मंदिर एक समतल पत्थर की बनी रचना है जिसकी ऊंचाई 72 फीट है. बैद्यनाथ मंदिर के तीन भाग हैं. गर्भ गृह में एक बैसाल्ट चट्टान जिसकी ऊंचाई 4 इंच तथा परिधि 5 फ़ीट है, उसी पर ज्योतिर्लिंग अवस्थित है. गर्भ गृह के सबसे ऊपर अष्टदल कमल चंद्रकांतमणि है जिससे बूंद-बूंद शीतल जल लिंग के ऊपर गिरता है.

बैद्यनाथ मंदिर निर्माण के संदर्भ में कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, लेकिन मंदिर निर्माण की शैली को देख कर कुछ इतिहासकारों द्वारा इसे चोल राजा आदित्यसेन द्वारा शायद आठवीं, नौवीं शताब्दी में निर्माण कराया गया हो, बतलाते हैं. मंदिर निर्माण की नागरा शैली भी शायद इस मान्यता को बल प्रदान करती है. प्रसिद्ध इस्लामिक ग्रंथ ‘कुलस्त ए तवारीख’ जो 1695- 1699 के बीच लिखा गया था, में भी बैद्यनाथ मंदिर के बारे में विस्तृत वर्णन किया गया है. मुगलकाल में भी इस मंदिर की प्रसिद्धी चहुंओर थी. औरंगजेब के शासन काल में जब प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त करने का कार्य किया जा रहा था, उस समय में भी इस मंदिर में आक्रांताओं का प्रवेश नहीं हो पाया था. पूर्व में यह बंगाल का अभिन्न अंग था, जिसके चलते तंत्र पूजा भी यहां पर साथ-साथ ही प्रचारित और पुष्पित हुआ. बैद्यनाथ क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी मां राज राजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी है. यहां के पूजन पद्धति में तंत्र पूजा का भी विशेष महत्व है.

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