Jharkhand News, दुमका न्यूज (आनंद जायसवाल) : झारखंड की उपराजधानी दुमका के मलूटी को राष्ट्रीय फलक तक पहुंचाने वाले गोपालदास मुखर्जी के निधन से क्षेत्र में ही नहीं, मलूटी आने-जाने वालों में शोक की लहर है. गोपालदास वायुसेना में थे और वहां से जब वे रिटायर हुए, तब अपने गांव में अध्यापन का पेशा अपनाया. वे पहले तो श्रीरामकृष्ण मिशन देवघर गये, पर वहां से इन्हीं मंदिरों की वजह से अपने गांव लौट आये व स्थानीय स्कूल में अध्यापन किया. मलूटी को यूनेस्को के वर्ल्ड हैरिटेज में शामिल कराने का उनका सपना अधूरा रह गया.
पचास के दशक में डबल एमए व एलएलबी की डिग्री हासिल करनेवाले बटु मास्टर (गोपाल दास पूरा गांव इसी नाम से पुकारता था) को लगा कि इस काम को करते-करते ही वे मलूटी के मंदिरों के इतिहास को खंगालने, लिखने के साथ-साथ संरक्षण का काम कर सकेंगे. लिहाजा 1980-90 के दशक में उन्होंने अकेले ही पहले इसका बीड़ा उठाया. मां तारा के अनन्य भक्त वामाखेपा को ज्ञान व सिद्धि की प्राप्ति इसी मलूटी गांव में हुई थी. दरअसल गोपालदास जब छोटे थे, तब उन्होंने सौ वर्षों तक जीवित रही अपनी दादी नरेंद्रबाला से वामा खेपा (वामदेव) की दिलचस्प कहानियां सुनी थीं. वामाखेपा की इन दिलचस्प कहानियां, मां मौलिक्षा के प्रति आस्था तथा मलुटी की टेराकोटा कलाकृतियों ने उनके अंदर जो जुनून पैदा किया, उसे उन्होंने अपने अंदर से कभी करने नहीं दिया. इस जुनून ने उन्हें इन मंदिरों से जोड़े रखा.
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उन्हें लगा कि इन मंदिरों के इतिहास से देश-दुनिया को अवगत होना चाहिए, सो उन्होंने इसके लिए पहल जारी रखी. जगह-जगह पत्राचार किया. मलूटी के इतिहास लेखन करते-करते दो किताबें लिखीं. देवभूमि मलूटी व बादेर बदले राज (बाज के बदले राज). बाद में टेराकोटा कलाकृतियों एवं यहां दिखनेवाली स्थापत्य कलाओं को लेकर उन्होंने तीन अन्य पुस्तकें लिखीं. तारापीठ आनेवाले जब यहां पहुंचने लगे, तो उस वक्त दूरदर्शन के चर्चित शो ‘सुरभि’ ने इन मंदिर समूहों पर स्टोरी बनायी. दूरदर्शन की इस टीम ने मलूटी को पूरे देश में विख्यात बनाया. फिर क्या था, पर्यटकों का आने का सिलसिला भी आगे बढ़ता गया और बटू मास्टर की मेहनत भी रंग लाने लगी.
झारखंड अलग राज्य बना तो भी गोपालदास मुखर्जी इन मंदिरों के संरक्षण का न केवल अपने स्तर से प्रयास करते रहे, बल्कि सरकार तक आवाज उठाते रहे. मंदिरों के धराशायी होती कलाकृतियों की वेदना पहुंचाते रहे. यही वजह रही कि सरकारें भी समय-समय पर मलूटी पहुंचती रहीं. लिहाजा न केवल मलूटी के मंदिरों के इतिहास से वाकिफ कराने की सरकारी मुहिम शुरू हुई, बल्कि पर्यटन विकास का काम भी शुरू हुआ. कई विकास के कार्य शुरू हुए. सड़कें चकाचक हुईं. विश्रामगृह बने.
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मलूटी को यूनेस्को के वर्ल्ड हैरिटेज में शामिल कराने को लेकर उनका सपना था. वह सपना पूरा नहीं हुआ, लेकिन राजपथ पर गणतंत्र दिवस के अवसर पर निकली झांकी ने उन्हें सुकून जरूर पहुंचाया. यही वजह थी कि मलूटी के मंदिरों का सही तरीके से संरक्षण को लेकर भी वे आवाज उठाने में भी कभी पीछे नहीं हटे. पिछले दो-ढाई वर्षों से वे अस्वस्थ थे. जब तक स्वस्थ्य रहे, गांव में हर मंदिर घूमते रहते और उसके संरक्षण में लगे रहते. उनके अस्वस्थ होने के दौरान ही मलूटी मंदिरों के संरक्षण का कार्य भी ठप पड़ गया है. मलूटी को बेहतर पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करके ही हम अपने बटू मास्टर को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं.
Posted By : Guru Swarup Mishra