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दुमका में बने सूप-डाले से यूपी-बिहार में भी हजारों लोग करेंगे छठ

झारखंड एक ऐसा राज्य जहां के निवासी कृषि पर पूर्ण रूप से निर्भर है. भिन्न-भिन्न किस्म की खेती कर ये अपना जीवन यापन करते है. बांस से निर्मित सामग्री बनाने वाले इन मोहली समुदाय के लोगो को बास की कृषि के लिए प्रोत्साहित करने से ये अपने जमीन पर बास की खेती कर पायेगे.

दुमका जिला के काठीकुंड में बने सूप-डाले से इस साल भी बिहार व उत्तर प्रदेश के कई जिले के हजारों लोग छठ पर्व करेंगे. इस जिले में मोहली समाज के लोग बांस से बने सामान तैयार करते हैं. बांस की यहां उपलब्धता प्रचुर पैमाने पर है और यहां के मोहली समाज द्वारा तैयार किया गया सूप-दउरा की बुनावट बेहद ही अच्छी होती है, लिहाजा श्रावणी मेला के बाद छठ पर्व के दौरान यहां से बड़ी खेप बाहर जाती है. जिले के काठीकुंड प्रखंड के कुछ गांव भी बड़ी मंडी बन चुके हैं. जहां बड़े कारोबारी पहुंचकर दर्जनों ट्रक सूप-दउरा बाहर भेज चुके हैं या साथ ले जा चुके हैं. यहां के ग्रामीण सदियों से बास से निर्मित सामग्री बना कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं. प्रखंड के कुसुंबा, आस्ताजोड़ा, हरला, दूधिया, आमगाछी, मयूरनाच, घाटचोरा, जंगला ऐसे गांव हैं जहां के ग्रामीण बास से विभिन्न प्रकार की चीजें बनाते है और यही इनकी जीवनयापन का प्रमुख जरिया है. अमूमन ये साल भर बास से बने उत्पाद बना कर ही गुजारा करते हैं लेकिन छठ के पर्व में डलिया व सूप की बड़ी पैमाने पर मांग होती है. इसे लेकर ये कारीगर 3 महीनें पूर्व से ही बनाने में जुट जाते है. बांस खरीद कर लाना, कटाई छंटाई के साथ ही उत्पाद बनाने का काम शुरू होता है. कुसुंबा गांव के कई कारीगर छठ पर अब तक लाखों रुपये के सूप व डलिया की बिक्री कर चुके हैं.


बांस की खेती को मिले बढ़ावा

झारखंड एक ऐसा राज्य जहां के निवासी कृषि पर पूर्ण रूप से निर्भर है. भिन्न-भिन्न किस्म की खेती कर ये अपना जीवन यापन करते है. बांस से निर्मित सामग्री बनाने वाले इन मोहली समुदाय के लोगो को बास की कृषि के लिए प्रोत्साहित करने से ये अपने जमीन पर बास की खेती कर पायेगे. उनके गांव में बास की खेती नहीं होती तो प्रखंड के अन्य गांव या पहाड़ों के किनारे बसें गांव से वो बास खरीद कर लाते है. अमूमन ग्रामीणों को एक बास 50 से 60 रुपये के बीच मिलती है. अगर इन क्षेत्रों में बांस की खेती को बढ़ावा दिया जाय तो इन्हें बांस के रूप में कच्चे माल को खरीदना नहीं पड़ेगा. एक और तरीके से इनकी आय में बढ़ोतरी हो पायेगी.

सैकड़ों परिवार जुड़े हैं बांस उत्पाद बनाने के काम से

इन कामों में लगे कारीगर सुकल मोहली, पाउल मोहली, कर्नल मोहली, दिलीप मोहली, जगन्नाथ मुर्मू, सोमलाल मोहली, बाबूराम मोहली आदि ग्रामीणों ने बताया कि सिर्फ उनके गांव के ही 50 से भी ज्यादा परिवार इस काम से जुड़े हैं. एक बांस से कारीगर एक सामग्री का 2 से 3 पीस बना लेते हैं, ऐसे में उन्हें लाभ के रूप में 150-200 रुपये आते है. 50 रुपये से 200 तक की डाला व सूप बनाये जाते हैं. इनके उत्पादों को थोक के भाव खरीदने खरीददार गांव तक पहुंच जाते हैं, जिसमें कारीगरों को सामग्रियों की खुले बाजार से थोड़ी कम कीमत मिलती है. एकमुश्त पैसे आने के कारण कारीगर थोक खरीददार को समान बेच देते हैं, जिससे उन्हें एक पूंजी प्राप्त हो जाती है. खरीददार इनके उत्पादों को कोलकाता व अन्य बड़े शहरों में ले जाते हैं, जहां इन्हीं उत्पादों की अच्छी खासी कीमत उन्हें मिलती है.

पूंजी, प्रशिक्षण व बाजार उपलब्ध कराने की आवश्यकता

बांस से निर्मित उत्पादों के निर्माण से अपना जीविकोपार्जन करने वाले कारीगर सोकोल मोहली, मीरू मोहली, सोनिया मरांडी, अंजू मुर्मू, मार्शिला मोहली, रोसमेल मोहली ने बताया कि पूंजी व प्रशिक्षण के अभाव में हम उतनी कमायी नहीं कर पाते जिससे हमारे जीवन स्तर में व्यापक बदलाव आ पाये. बताया कि एक दो बार प्रशिक्षण दिया गया है,लेकिन समय समय पर प्रशिक्षण दिया जाय तो हम बांस से फर्नीचर, लैंपसेड, खिलौने, कुर्सी, पूजन सामग्री रखने वाली साजी, चप्पल स्टैंड, सब्जी स्टैंड जैसी कई चीजों का निर्माण कर पायेंगे. ग्रामीणों ने कहा कि अगर सरकार द्वारा कुछ ऋण या पूंजी मुहैया कराने वाली योजना सुगमता पूर्वक मिल जाए तो ज्यादा सामग्री बना पायेंगे और बाजार मिलने पर दूर दूर तक हमारे उत्पाद जा सकेंगे. बहरहाल, इन बांस कारीगरों के कौशल को तराशते हुए अगर इन्हें पूंजी और बाजार उपलब्ध कराया जाय तो जिस प्रकार तसर उत्पादन ने झारखंड को देश दुनिया भर में एक अलग पहचान दिलायी है, उसी प्रकार बांस निर्मित भिन्न-भिन्न आकर्षक सामग्रियों के बाहर राज्यों व देशों में निर्यात से झारखंडियों को एक अलग पहचान मिलेगी.

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