Savitribai Phule Jayanti 2023: सावित्री बाई फूले का जन्म आज के दिन 03 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित नायगांव नामक छोटे से गांव में हुआ था. वह भारी बाधाओं और कष्ट-कंटकों से लड़ती भिड़ती यहां तक पहुंची है. इन संघर्षों का आरंभ बिंदु वह है जब महिलाओं का शिक्षण किसी आपराधिक कृत्य सरीखा था. विधवा विवाह, बाल विवाह, सतीप्रथा जैसी जघन्य कुरीतियां समाज में अपनी जड़ें जमाए थी.
इस घटना ने बदल दी जिंदगी
1840 में मात्र 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई का विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले के साथ हुआ. उस समय वो पूरी तरह अनपढ़ थीं और पति मात्र तीसरी कक्षा तक ही पढ़े थे. पढ़ाई करने का जो सपना सावित्रीबाई ने देखा था विवाह के बाद भी उन्होंने उस पर रोक नहीं लगने दी. इनका संघर्ष कितना कठिन था, इसे इनके जीवन के एक किस्से से समझा जा सकता है.
एक दिन वो कमरे में अंग्रेजी की किताब के पन्ने पलट रही थीं, इस पर इनके पिता खण्डोजी की नजर पड़ी. यह देखते वो भड़क उठे और हाथों से किताब को छीनकर घर के बाहर फेंक दिया. उनका कहना था कि शिक्षा पर केवल उच्च जाति के पुरुषों का ही हक है. दलित और महिलाओं के लिए शिक्षा ग्रहण करना पाप है.
यही वो पल था जब सावित्रीबाई ने प्रण लिया कि वो एक न एक दिन जरूर पढ़ना सीखेंगी. उनकी मेहनत रंग लाई. उन्होंने सिर्फ पढ़ना ही नहीं सीखा बल्कि न जाने कितनी लड़कियों को शिक्षित करके उनका भविष्य संवारा, लेकिन यह सफर आसान नहीं रहा.
1848 में की देश का सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना
वर्ष 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश का सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना सावित्रीबाई फुले ने की थी. सावित्रीबाई फुले मात्र इन स्कूलों में केवल पढ़ाती नहीं थी बल्कि लड़कियां स्कूलों को ना छोड़े इसके लिए वह मदद भी प्रदान करती थी. गौरतलब है कि सावित्रीबाई फुले को प्रथम शिक्षिका होने का श्रेय भी जाता है.
पति के साथ मिलकर की सत्यशोधक समाज की स्थापना
बिना पुरोहितों के शादी एवं दहेज प्रथा को हतोत्साहित करने के साथ अंतर्जातीय विवाह करवाने हेतु उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर सत्यशोधक समाज की स्थापना की.
10 मार्च 1897 को इस दुनिया को कहा अलविदा
महाराष्ट्र में प्लेग फैल जाने के उपरांत उन्होंने पुणे में अपने पुत्र के साथ मिलकर 1897 में एक अस्पताल खोला जिससे प्लेग पीड़ितों का इलाज किया जा सके. हालांकि मरीजों की सेवा करते हुए वह स्वयं प्लेग से पीड़ित हो गई और 10 मार्च1897 को इस दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह दिया.