Loksabha Election 2024 में स्कूली शिक्षा नहीं बनी मुद्दा
School education did not become an issue in Lok Sabha Election 2024: लोकसभा चुनाव का समापन हो चुका है. सरकार भी बन गई. हजारों कैंडिडेट ने गरीबी दूर करने, नौकरी देने जैसे मुद्दे को लेकर चुनाव लड़ा, पर किसी ने स्कूली शिक्षा को मुद्दा नहीं बनाया. पढिए शिक्षाविद संजीव राय का आलेख.
Loksabha Election 2024, Education System: देश में लोकसभा चुनाव समाप्त हो गए. चुनाव में अनाज,आवास, व्यापार -रोजगार की तो चर्चा रही लेकिन राजनीतिक दलों के बीच शिक्षा कोई महत्वपूर्ण विषय नहीं बना. कुछ दिन पहले हैदराबाद के जिला शिक्षा अधिकारी का एक पत्र पूरे देश के अभिभावकों के बीच चर्चा का विषय बन गया था! दरअसल, जिला शिक्षा अधिकारी ने अपने विभागीय मातहतों को कहा है कि यह सुनिश्चित किया जाय कि जिले का कोई भी स्कूल ,अपने परिसर में स्कूल की पोशाक, जूता, बेल्ट आदि वस्तुएं न बेचे. पत्र में न्यायालय का सन्दर्भ देते हुए कहा गया है कि यदि कुछ स्कूल, पाठ्य-पुस्तकें और स्टेशनरी छात्रों को बेचना चाहते हैं तो उन्हें बिना मुनाफा लिए देना होगा. विभागीय अधिकारी, स्कूलों का निरीक्षण करेंगे, जिससे उनके परिसर में चल रही ऐसी दुकानों को बंद किया जा सके.
निजी स्कूलों के संगठन बेचैन
गत तीस मई के इस पत्र के आने के बाद एक तरफ जहां अभिभावकों में खुशी है वहीं, निजी स्कूलों के संगठन बेचैन हैं. इन स्कूलों के संगठन और सरकार के बीच फीस निर्धारण को लेकर रस्साकशी दिल्ली में भी चलती रहती है. कई राज्यों में नए सत्र के साथ ही निजी स्कूल अपनी फीस बढ़ा देतें हैं और उनपर कोई दबाव कार्य नहीं करता. पिछले दो दशकों में देश में निजी स्कूलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. दरअसल, शिक्षा एक सामाजिक उपक्रम की जगह, एक लाभकारी व्यापार के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है. परिवार में एक- दो बच्चों के होने से उनकी महंगी परवरिश और उनके लिए अधिक संसाधनों की उपलब्धता का रास्ता खुला है. सच तो यह है कि आज शहरीकरण और बाजारीकरण के दौर में अभिभावकों की जिंदगी अपने बच्चों की शिक्षा- व्यवस्था के आस- पास ही घूम रही है. अभिभावकों की बढ़ती आकांक्षा और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता पर उठते सवाल ने निजी स्कूलों के लिए उम्मीदें जगाई हैं. सामाजिक विषमता का असर भी सरकारी स्कूलों में देखने को मिलता है. जैसे- जैसे समाज का तबका, सरकारी स्कूलों की ओर गया, निजी स्कूल सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक बनते गए. निजी स्कूलों में भी आर्थिक- सामाजिक हैसियत के अनुसार अलग -अलग तरह के स्कूल हैं और वह “सोशल रिप्रोडक्शन” का माध्यम बनते हैं!
सरकारी और सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूल बंद होते जा रहे हैं
आज स्थिति यह है कि यदि कोई सरकारी कर्मचारी अपने बच्चे का नामांकन, एक सरकारी स्कूल में करवा देता है तो यह विषय समाज- मीडिया में वायरल हो जाता है. अपवाद को छोड़ दें तो सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक भी अपने बच्चों को वहां नहीं पढ़ाते. ऐसे में निजी स्कूलों का खुलना कैसे रुकेगा ? यूनेस्को की ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2022 बताती है कि पिछले आठ वर्षों में दस में सात स्कूल, निजी विद्यालय की श्रेणी में आते हैं. सरकारी और सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूल बंद होते जा रहे हैं और निजी स्कूल गांव- शहर में खुलते जा रहे हैं. आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि 2009 में शिक्षा अधिकार कानून बनने के बाद भी अलग- अलग राज्यों में स्कूलों को बंद किया गया.
क्या स्कूल में नामांकन बढ़ाने की जिम्मेदारी बच्चों की थी?
अक्सर सरकारी स्कूलों को इस बात के आधार पर बंद करने का निर्णय किया जाता है कि, इन स्कूलों में नामांकन कम है. जब किसी भी स्कूल को छात्रों की कम संख्या होने के आधार पर बंद करने का निर्णय लिया जाता है तो मुझे नहीं पता कि उसमें कोई यह बात उठाता है या नहीं कि क्या स्कूल में नामांकन बढ़ाने की जिम्मेदारी बच्चों की थी? जिस सामाजिक- राजनीतिक जिम्मेदारी के चलते सरकारी स्कूल खोले गए उसमें तो यह पता ही था कि किसी छोटी बस्ती में कम ही बच्चे होंगे! फिर संसाधन मिले नहीं और एक- दो ही शिक्षक पढ़ाते रहे तो वहां नामांकन कैसे बढ़ता!
लेकिन बंद होते सरकारी स्कूलों को लेकर किसी राज्य में राजनीतिक दलों ने कोई आंदोलन नहीं किया. कोरोना के बाद छोटे निजी स्कूल भी बंद हुए हैं और सरकारी स्कूलों के हज़ारों छात्रों, विशेष रूप से लड़कियों ने भी स्कूल छोड़ा. राजनीतिक मंचों पर इसकी कोई चर्चा नहीं हुई.
दिल्ली के स्कूलों को छोड़ दें तो बीते चुनाव की राजनीतिक रैलियों में, प्राथमिक शिक्षा की उपलब्धता से लेकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर लगभग चुप्पी ही रही. सतही तौर से देखें तो ऐसा लगता है कि जनता की तरफ से शिक्षा कोई चुनाव का मुद्दा नहीं है.
देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 सरकारी स्कूलों को कैसे मजबूती देती है, यह भी देखने की बात होगी
1990 के शुरुआती वर्षों तक सभी के लिए एक समान शिक्षा के नारे लगते थे. निर्धन हो या धनवान, सबको शिक्षा एक समान ! 1968 में देश की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए कोठारी आयोग ने अपनी अनुशंसा में “कॉमन स्कूल सिस्टम” का प्रस्ताव रखा था, जिससे देश के बच्चों को बिना आर्थिक -सामाजिक भेदभाव के एक समान शिक्षा मिल सके ! लेकिन सभी के लिए सामान शिक्षा की वह व्यवस्था नहीं बन सकी और तरह -तरह के स्कूल सरकारी और निजी क्षेत्रों में खुलते रहे.
शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार नहीं लेती तो आती है नागरिकों में उदासीनता
शिक्षा के राजनीतिक मुद्दा नहीं बनने का परिणाम यह हुआ कि आज बहुमत में मध्यमवर्गीय अभिभावक यह मानने लगे हैं कि शिक्षा राज्य की नहीं,व्यक्ति की जिम्मेदारी है. किसी लोकतान्त्रिक देश में यदि बुनियादी शिक्षा -स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकारें नहीं लेती हैं तो इससे वहां के नागरिकों की उदासीनता का आभास होता है. हैदराबाद के जिला शिक्षा अधिकारी ने एक साहसिक कदम उठाया है लेकिन यदि उनके साथ अभिभावकों और राजनीतिक दलों का समर्थन नहीं रहेगा तो उनका प्रयास एक सांकेतिक प्रतिरोध से अधिक कोई प्रभाव नहीं छोड़ पायेगा.
चुने जनप्रतिनिधि से शिक्षा पर सवाल पूछने के लिए भी तैयार रहना चाहिए
चार जून को लोकसभा चुनाव के परिणाम आ गए लेकिन केंद्र में बनी सरकार और राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में देश की शिक्षा व्यवस्था होगी या नहीं, यह देखने वाली बात होगी. जो अभिभावक हैदराबाद के जिला शिक्षा अधिकारी के पत्र से उत्साहित हैं, उन्हें अपने चुने जनप्रतिनिधि से शिक्षा पर सवाल पूछने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. बेहतर तो यह होगा कि देश में स्कूली शिक्षा के लिए एक आयोग बना कर, निजी- सरकारी स्कूलों की वर्तमान भूमिका का मूल्यांकन हो. समृद्ध देश और विकसित समाज का रास्ता हमारे स्कूली व्यवस्था से ही होकर जायेगा ! (लेखक शिक्षाविद हैं )