भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जिस तरह विपक्षियों के एक बयान पर चुनावी हवा का रुख बदल देती थी, ठीक उसी तरह इस बार कांग्रेस और विपक्ष ने किया. अबकी बार 400 पार… नारे को विपक्ष ने ऐसा प्रचारित किया जैसे भाजपा कुछ ऐसा करने जा रही है, जो दलितों के लिए अच्छा नहीं होगा.
आपको याद होगा आरएसएस प्रमुख ने पिछले एक चुनाव में बयान दिया था, जिसमें आरक्षण को लेकर कुछ बातें कहीं थीं. कांग्रेस और आरजेडी सहित पूरा मोदी विरोधी कुनबा एक होकर इसे प्रचारित करने में लग गया कि बीजेपी आरक्षण बदलना चाहती है. मंझे हुए राजनेता लालू यादव यहीं तक नहीं रुके, वे गुरु गोलवलकर की किताब “बंच आफ थाट्स” लेकर घूमने लगे और पन्ने पलटकर यह जताने की कोशिश में कामयाब रहे कि संघ आर्थिक आरक्षण का पक्षधर है और किताब में भी यह लिखा है. इसका उस समय के चुनाव परिणाम पर असर सभी को पता है.
इस बार के चुनाव में इसके अलावा भी कई क्षेत्रों में रही सही कसर पार्टी की अंदरुनी कलह ने पूरी कर दी. पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को केवल मोदी मैजिक का ही सहारा था. जितनी सीटें आई हैं, वो हकीकत में मोदी मैजिक के कारण ही आ सकीं, नहीं तो और बुरी स्थिति होती. झारखंड की सभी आदिवासी सीटें बीजेपी हार गई है.
अर्जुन मुंडा जैसे कद्दावर नेता खूंटी से चुनाव हार गये हैं. हो-आदिवासी बहुल सिंहभूम लोकसभा क्षेत्र में बीजेपी ने पूर्व सीएम मधु कोड़ा की पत्नी और हो जनजाति की निवर्तमान सांसद गीता कोड़ा को टिकट दिया था, मगर एक संताल महिला और झारखंड सरकार की मंत्री जोबा माझी ने उन्हें पराजित कर दिया. यहां केवल आदिवासी का मुद्दा चला और वोटरों ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के चुनाव चिह्न तीर-धनुष पर ही विश्वास जताया.
इस चुनाव से कई क्षेत्रीय बंधन टूटे तो झारखंड में परिवारवाद की नई फसल लहलहाने की कोशिश नाकामयाब हो गई. पूर्व मंत्री सुबोधकांत सहाय की बेटी यशस्विनी सहाय को निवर्तमान सांसद संजय सेठ ने पराजित कर दिया. वहीं, धनबाद में पूर्व मंत्री राजेंद्र सिंह की बहू और विधायक अनूप सिंह की पत्नी अनुपमा सिंह को भी हार का मुंह देखना पड़ा. यहां से बाघमारा के विधायक ढुल्लू महतो ने उन्हें आसानी से हरा दिया.
बिहार में सबसे बुरी स्थिति लालू परिवार की रही. उनकी एक बेटी सारण से चुनाव हार गईं. वहीं, उनके परिवार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बनी पूर्णिया सीट भी उनके धुर विरोधी पप्पू यादव के खाते में चली गई. कुल मिलाकर बीजेपी के लिए भी यह एक सबक है.
कुछ ही माह में झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं. यहां की आदिवासी बहुल लगभग डेढ़ दर्जन विधानसभा सीटों पर उसको नये सिरे से रणनीति बनानी होगी. हेमंत सोरेन के जेल जाने से उपजी सहानुभूति लहर को भी कम करनी होगी. सरकार चलाने में माहिर बीजेपी के लिए दिल्ली में सरकार गठन कोई बड़ी बात नहीं होगी, लेकिन पार्टी नेताओं की ढिलाई से आगे का रास्ता थोड़ा मुश्किल होता दिख रहा है.
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