Lok Sabha Election 2024: जब पंडित नेहरू ने कांग्रेस की हार के बाद भी वादा निभाया

लोकसभा चुनाव में आज पार्टियों के बीच जिस प्रकार का कंपीटिशन दिखता है, वो पहले नहीं था. माहौल भी काफी अच्छा होता था, नेहरू जी ने चुनाव में हार के बाद भी अपना वादा पूरा किया था.

By कृष्ण प्रताप सिंह | April 11, 2024 2:10 PM

नेताओं की वादाखिलाफी की आदत अब आम हो गई है. चुनावों के दौरान किये जाने वाले वादे तो यों भी, कहा जाता है कि, पूरे करने के लिए नहीं होते. लेकिन आजादी के फौरन बाद के दशकों में ऐसा नहीं था.चुनावों के दौरान नेता जो वादे करते, उन्हें याद भी रखते थे और निभाते भी थे. देश के पहले प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की बाराबंकी लोकसभा सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए वोट मांगते हुए किया गया एक वादा मतदाताओं द्वारा उनकी अनसुनी कर उनके प्रत्याशी को हरा देने के बावजूद निभाया था.

चुनाव में हार के बाद भी बनवाया काॅलेज

उस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी हुसैन कामिल किदवई सोशलिस्ट पार्टी के नेता रामसेवक यादव से कड़े संघर्ष में फंसे थे.उनकी मांग पर पं नेहरू वोट मांगने बाराबंकी आये तो उसके रामनगर वाइस पैवेलियन मैदान (जहां अब पुलिस लाइन है) में हुई उनकी सभा में भारी जनसैलाब उमड़ा. इस कदर कि मैदान में तिल रखने की भी जगह नहीं बची.
सभा में कुछ छात्रों ने उनसे बारांबकी में एक डिग्री कालेज की स्थापना कराने की मांग की और बताया कि उसके अभाव में उन्हें उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ जाना पड़ता है. इन छात्रों ने सभा के बाद उनसे मिलकर फिर अपनी मांग दोहराई तो उन्होंने उनसे उनकी मांग पूरी करने की हामी भर ली. फिर अपने साथ बैठे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त से कहा कि वे चुनाव के फौरन बाद डिग्री कालेज स्थापना की प्रकिया आरंभ करा दें. लेकिन मतगणना में हुसैन कामिल किदवई रामसेवक यादव के मुकाबले पांच सौ वोटों से हार गये तो डिग्री कालेज की मांग करने वाले छात्रों को लगा कि अब नेहरू अपना वादा नहीं ही निभायेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नेहरू इस बाबत चंद्रभानु गुप्त को तब तक याद दिलाते रहे, जब तक डिग्री कालेज स्थापित नहीं हो गया. गुप्त को एक पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि लोगों में यह संदेश कतई नहीं जाना चाहिए कि हमारा प्रत्याशी हार गया तो हम अपना वादा निभाने में रुचि नहीं ले रहे. 27 मई, 1964 को नेहरू का निधन हुआ तो कृतज्ञ छात्रों की मांग पर उस कालेज के साथ उनका नाम जोड़ दिया गया और अब वह जवाहरलाल नेहरू स्मारक पीजी काॅलेज कहलाता है.


और शास्त्री जी ने अपनी जीप प्रतिद्वंद्वी को दे दी

1962 के लोकसभा चुनाव की बात है.1957 में इलाहाबाद लोकसभा सीट से चुने गये लालबहादुर शास्त्री 1962 में फिर इसी सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी थे.चुनाव प्रचार के गिनती के दिन ही बचे थे और मुकाबला कड़ा न होने के बावजूद सारे मतदाताओं तक पहुंचने की ख्वाहिश में वे दिन-रात एक किये हुए थे.एक दिन वे एक चुनाव सभा को संबोधित करके लौट रहे थे, तो देखा कि उनके विरुद्ध खड़े और सभा करने जा रहे एक प्रत्याशी की जीप बीच रास्ते खराब हो गई है और उसके कार्यकर्ता चिंतित हैं कि जब तक मिस्त्री बुलाकर जीप की मरम्मत कराई जायेगी, तब तक उनके पास निर्धारित समय पर सभास्थल पहुंचने का समय ही नहीं रह जायेगा.फिर तो सभा में आये मतदाता ऊबकर और नाराज होकर लौट जायेंगे.
दरअसल, उन दिनों आजकल जितनी जीपें व कारें नहीं हुआ करती थीं कि फौरन दूसरी का इंतजाम हो जाये.न ही यातायात के साधन सुगम थे.दूर-दराज के इलाकों में तो और भी नहीं. हां, आजकल जितनी राजनीतिक कटुता भी नहीं थी. शास्त्री जी ने प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी को पसीना-पसीना होते देख अपनी जीप रुकवाई, उसके पास जाकर प्रणाम किया और पूछा कि क्या वे उसकी कोई मदद कर सकते हैं? प्रतिद्वंद्वी ने समस्या बताई तो उन्होंने प्रस्ताव किया कि वे उसे अपनी जीप में बैठाकर उसकी सभा के स्थल तक ले चलते हैं.वहां दोनों बारी-बारी से मतदाताओं से अपनी बात कह लेंगे.अंततः तो फैसला मतदाता करेंगे कि वे किसे अपना सांसद चुनें. प्रत्याशी इस पर राजी नहीं हुआ तो शास्त्री जी खुद उधर से गुजर रही अपने एक समर्थक की जीप में जा बैठे और अपनी जीप प्रतिद्वंद्वी को दे दी.एक कार्यकर्ता ने इस पर एतराज जताया तो बोले, ‘हमारे विरोधी मतदाताओं से अपनी बात कहने नहीं जा सकें तो चुनावी मुकाबला बराबरी का नहीं रह जायेगा न! ऐसा नहीं होना चाहिए. ’


वोटरों से खफा होकर चुनाव का टिकट ठुकरा दिया

मतदाताओं के अपने सांसदों से नाराज होने और उन्हें वोट न देने के तो आपने अनेक वाकये सुने होंगे, लेकिन किसी सांसद के अपने मतदाताओं से नाराज होकर अगले चुनाव का टिकट ठुकरा देने का शायद ही कोई वाकया सुना हो.1971 में बिहार की खगड़िया सीट से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के टिकट पर चुने गये समाजवादी नेता शिवशंकर प्रसाद यादव एक ऐसे ही सांसद थे, जिन्होंने अपने मतदाताओं की कारस्तानियों से नाराज होकर अगले, 1977 के, चुनाव में जनता पार्टी ( तब तक संसोपा का इसमें विलय हो गया था) का टिकट लेने से मना कर दिया था, जबकि उसकी लहर चल रही थी और उसका टिकट एक तरह से जीत की गारंटी था.जानना दिलचस्प है 1971 के लोकसभा चुनाव में चल रही इंदिरा गांधी की लहर में संसोपा के देश भर में कुल तीन ही सांसद निर्वाचित हुए थे, जिनमें खगड़िया से जीते शिवशंकर प्रसाद यादव एक थे.मगर 1977 में उन्होंने यह कहकर चुनाव लड़ने से मना कर दिया कि वे खगड़िया के मतदाताओं से बहुत नाराज हैं क्योंकि ये मतदाता रोज-रोज उनसे अपने गैरकानूनी व गलत कामों की पैरवी कराने के फेर में रहते हैं.उनका कहना था कि वे इससे इनकार करते-करते तंग आ चुके हैं और उनकी अंतरात्मा आगे और तंग होते रहने की इजाजत नहीं देती. बताते हैं कि शिवशंकर प्रसाद यादव का निधन हुआ तो उनके पास से केवल सात रुपये निकले थे.

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