चुनाव-चक्रम : मध्यप्रदेश में अल्पसंख्यकों का शून्य होता प्रतिनिधित्व

मध्यप्रदेश में अल्पसंख्यक-प्रतिनिधित्व के मान से भोपाल का अतीत समृद्ध रहा है. सन् 57 व 62 में कांग्रेस ने यहां से मैमूना सुल्तान को टिकट दिया और वह चुनी गयीं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 3, 2024 7:02 AM

Lok Sabha Election 2024|डॉ सुधीर सक्सेना : मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी और सर्वप्रमुख शहर इंदौर की आबादी यूं तो मिश्रित है, किंतु वहां पारसी समुदाय की संख्या उंगलियों पर गिने जाने योग्य है. ऐसे में कौन यकीन करेगा कि आज से 40 से भी अधिक साल पहले सन 1962 के चुनाव में जन्मना पारसी होमी दाजी ने इंदौर से लोकसभा के लिए विजय हासिल की थी.

गोल्ड मेडल के साथ वकालत करने वाले होमी दाजी थे श्रमिक नेता

होमी दाजी श्रमिक नेता थे. गोल्ड मेडल के साथ वकालत की सनद. पिता कपड़ा मिल में कॉटन सेलेक्टर थे. स्नेहलतागंज में रहते थे. होमी ओजस्वी वक्ता थे. मजदूरों के रहनुमा. इंदौर शहर ने सन् 1957 में उन्हें एमएलए चुना था. वह भाकपा के लीडर थे. चुनाव बतौर निर्दलीय शेर छाप से लड़ा. कांग्रेस के राम सिंह भाई को मात दी.

1972 में रिकॉर्ड मतों से जीतकर एमएलए बने होमी दाजी

यह एक राष्ट्रीय प्रसंग था. देश के शीर्ष नेतृत्व ने उनकी कद्र की. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें कोलंबो में आयोजित वर्ल्ड पीस कॉन्फ्रेंस में भारत का प्रतिनिधि बनाकर भेजा. सन 1972 के विधानसभा चुनाव में होमी की कीर्तिमान मतों से जीतकर एमएलए बने. दाजी को आज भी पुरानी पीढ़ी ससम्मान याद करती है, लेकिन यह परंपरा अब टूट चुकी है.

मुस्लिम उम्मीदवार देने से भी परहेज कर रहीं पार्टियां

पारसी तो क्या सियासी पार्टियां संसदीय चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार तक खड़ा करने से परहेज बरत रही हैं. ध्रुवीकृत मध्यप्रदेश में दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों ने सन 2008 के बाद से कोई भी मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा नहीं किया.

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मध्यप्रदेश में मुस्लिमों की आबादी 6.6 फीसदी

लगभग साढ़े सात करोड़ की आबादी के मध्यप्रदेश में मुस्लिमों की जनसंख्या लगभग 6.6 फीसदी है. ईसाई, बौद्ध और सिख आबादी दशमलव में है और तीनों समुदाय मिलकर करीब एक प्रतिशत का विन्यास रचते हैं.

राजीव गांधी के बाद मार्ग से विचलित हो गई कांग्रेस पार्टी

सांप्रदायिक आधार पर वर्तुल विभाजन के इस अपूर्व और आवेशित दौर में अल्पसंख्यक-प्रतिनिधित्व के नाम पर अतीत के पन्ने फड़फड़ाते हैं, अन्यथा पूर्व केंद्रीय मंत्री और हॉकी के सितारा खिलाड़ी असलम शेर खां तो यहां तक कहते हैं कि जब तक राजीव गांधी जीवित थे, कांग्रेस सेक्यूलर मार्ग पर चली, किंतु उनके जाने के बाद कांग्रेस भी इस राह से विचलित हो गयी.

असलम का था जुमला- मुसलमानों को बाबरी नहीं बराबरी चाहिए

पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में केंद्रीय मंत्री रहे असलम का जुमला ‘मुसलमानों को बाबरी नहीं, बराबरी चाहिए’ बड़ा चर्चित रहा था.

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बैतूल से 4 बार सांसद चुने गए असलम शेर खां

आदिवासी नेता दिलीप सिंह भूरिया के साथ संसद में उनकी जोड़ी खूब सुर्खियों में रही थी. सतपुड़ा की उपत्यका में स्थित बैतूल में मुस्लिमों की आबादी विरल है और वह कोई निर्णायक समीकरण नहीं रचती, लेकिन असलम ने बैतूल से चार चुनाव लड़े. सन 1985, 1989, 1991 और 1996 में वह कांग्रेस के उम्मीदवार थे.

बैतूल ने कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रत्याशियों को फिर-फिर चुना

बैतूल को इस मान से मध्यप्रदेश के संसदीय क्षेत्रों में अलग खाने में वर्गीकृत किया जा सकता है कि बैतूल ने कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रत्याशियों को फिर-फिर चुनकर संसद में भेजा. सन 81 में बैतूल ने गुफराने आजम को अपना सांसद चुना. और पहले के कालखंड में जायें, तो सन 1967 और 71 के लोकसभा चुनाव में यहां से बतौर कांग्रेस प्रत्याशी एनकेपी साल्वे ने विजयश्री दर्ज की. साल्वे थे तो नागपुर के और ईसाई थे, लेकिन बैतूल का औदार्य कि उसने उन्हें दो बार वरा.

गुलशेर अहमद और अजीज कुरैशी भी मध्यप्रदेश के सांसद रहे

मप्र में एक और संसदीय क्षेत्र है सतना. बघेलखंड में स्थित सतना भी अपने उदार लोकतांत्रिक-चरित्र के लिए जाना जाता है. इसने गुलशेर अहमद और अजीज कुरैशी को चुनकर संसद में भेजा. बाद में ये दोनों क्रमश: हिमाचल और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे.

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होशंगाबाद से इकलौते सिख सांसद बने सरदार सरताज सिंह

सिखों की बात करें, तो सरदार सरताज सिंह इकलौते सिख है, जो होशंगाबाद से जीतकर संसद में पहुंचे और मंत्री बने. साल्वे के निर्वाचन के बाद ईसाइयों का शून्य प्रतिनिधित्व तब खंडित हुआ, जब सन् 90 के दशक में कांग्रेस ने भोपाल की सुश्री मेबेल रिबेलो को राज्यसभा में भेजा.

अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व में समृद्ध रहा है भोपाल का अतीत

अल्पसंख्यक-प्रतिनिधित्व के मान से भोपाल का अतीत किंचित समृद्ध रहा है. सन् 57 और 62 के चुनाव में कांग्रेस ने यहां से मैमूना सुल्तान को टिकट दिया और वह चुनी गयीं. सन् 77 के ऐतिहासिक चुनाव में बतौर जनता उम्मीदवार आरिफ बेग जीते.

…और भगवा रंग में रंग गया भोपाल, बड़े अंतर से हारे दिग्विजय सिंह

इसके बाद यह परंपरा खंडित हो गयी और कुछ ही बरसों में भोपाल इस कदर भगवा रंग में रंग गया कि दिग्विजय सिंह जैसा नेता साध्वी प्रज्ञा से भारी मतों के अंतर से हारा. कांग्रेस ने यहां से मंसूर अली खां (नवाब पटौदी) और साजिद अली पर दांव लगाया, लेकिन बात बनी नहीं. अब यहां से किसी अल्पसंख्यक को प्रत्याशी बनाने की क्षीण आवाज भी नहीं उठती.

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आजाद हिंद फौज के कर्नल ढिल्लन भी लड़े गुना-शिवपुरी से चुनाव

इस सारी गाथा के साथ एक रोचक क्षेपक यह भी जुड़ा हुआ है कि मध्यभारत की बहुचर्चित गुना-शिवपुरी सीट से आजाद हिन्द फौज फेम कर्नल ढिल्लन ने सन् 1977 में भाग्य आजमाया. उन्होंने युवा माधवराव सिंधिया को कड़ी चुनौती दी, लेकिन करीब 77 हजार मतों से मात खा गये.

शिवपुरी के कारोबारी के आग्रह पर शिवपुरी में बसे थे कर्नल ढिल्लन

बताते हैं कि कर्नल ढिल्लन को एकदा ट्रेन में शिवपुरी के बड़े कारोबारी शीतल प्रकाश जैन के पिताश्री घासीराम जैनचंद्र कवि मिल गये थे और उनके आग्रह पर वे शिवपुरी के उपांत में आकर बस गये.

मध्यप्रदेश के अल्पसंख्यकों के लिए डेढ़ दशक से टिकटों का टोटा

पत्रकार प्रमोद भार्गव के मुताबिक, मुस्लिम जागीरदार हाफिज निसार ने उन्हें एक रुपया प्रति बीघा के प्रतीक मूल्य पर करीब सौ बीघा जमीन प्रदान की थी. उनके बेटे के स्वामित्व का फार्म हाउस आज भी शिवपुरी में है. ऐसे ही केपीएस गिल का फार्म हाउस भी शिवपुरी में है. बहरहाल, मध्यप्रदेश के अल्पसंख्यकों के लिए डेढ़ दशक से टिकटों का टोटा है.

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मुसलमानों की दावेदारी से न बीजेपी को सरोकार न कांग्रेस को

असलम मियां ने सन् 2008 में सागर से अंतिम चुनाव लड़ा था और हारे. जहां तक दावेदारी का प्रश्न है, बीजेपी को उससे कोई सरोकार नहीं और कांग्रेस भी उनकी अर्जियां खारिज कर रही है. फलत: अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व शून्य हो चला है.

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