आज विश्व आदिवासी दिवस है. आदिवासियों के जीवन को लेकर कई फिल्में बनाई गई, लेकिन उनके मूल जीवन को शायद ही किसी फिल्म में दिखाया गया होगा. आदिवासियों का अपना धर्म है. ये प्रकृति पूजक हैं और जंगल, पहाड़, नदियों एवं सूर्य की आराधना करते हैं. इनके अपने पारंपरिक परिधान होते हैं जो ज्यादातर प्रकृति से जुडे होते हैं. इनका रहन-सहन, बोलचाल, खाद्य सामग्री भी अलग ही होते हैं. भारतीयों फिल्मों में भी आदिवासियों के जीवन को दर्शाया गया. शुरुआती दिनों में तो फिल्मों में आदिवासियों को एक खास जगह दी गई लेकिन फिर धीरे-धीरे ये गायब होते चले गये और अब तो जैसे सिर्फ फिल्मों में कहीं इक्का-दुक्का दिख जाये तो काफी है. भारत में ये अब फिल्मों में लगभग गायब हो चुके हैं. सिनेमा एक ऐसा आईना है जो आपको कई समाजों का आइना दिखा जाता है. लेकिन आदिवासियों के जीवन, उनके रहन-सहन, पहनावा, तीज-त्योहार को शायद ही फिल्मों में जगह दी गई होगी. आदिवासियों को सिर्फ पत्तों की पोशाकें पहने, जंगलों में भाला-बरछा लेकर दौड़ते हुए, आजीबों-गरीब हावभाव करते हुए ही दिखाया गया है. हालांकि आदिवासी अभाव में रहते हैं लेकिन हर मौकों को दिल से जीना जानते हैं. ऐसे में सिर्फ बड़े पर्दो पर उन्हें दीन-हीन, मैचे-कुचलों परिधानों में कहां तक सत्य है.
100 साल पूरे होने पर भी नहीं बदली सोच
भारतीय फिल्मों में ‘जंगली’ आदिवासियों पर केन्द्रित पहली फिल्म ‘इज्जत’ 1936 में बनी थी. इसे फ्रैंज ऑस्टन ने निर्देशित किया और हिमांशु राय ने बॉम्बे टॉकीज के लिए बनाया था. फिल्म में उन्होंन आदिवासी समाज को दर्शाया गया था. इस फिल्म में उस समय की स्टार अभिनेत्री देविका रानी ने भील आदिवासी युवती का किरदार नि भाया था और जाने-माने कलाकार अशोक कुमार ने भील युवक की भूमिका निभायी थी. इसके बाद याल 1937 में फिल्म ‘तूफानी टर्जन’ नाम फिल्म आई. यह फिल्म एक आदिवासी चरित्र ‘दादा’ पर आधारित थी, जिसमें बोमन श्रॉफ ने भी मुख्य भूमिका निभाई थी. फिल्म में उन्हें आधा आदमी, आधा वनमानुष जैसा दिखाया गया था. इसके बाद भी कई फिल्में बनी लेकिन आदिवासियों को सिर्फ जंगलियों के तौर पर दिखाया गया जो बस जंगलों में रहता हैं, जंगली जानवरों को शिकार करता है, बेवजह उछलता कूदता है. दादा साहेब फाल्के की कई फिल्मों पर नजर डाले तो उन्होंने आदिवासियों को राक्षस जैसा दर्शाया है और उनके सर्वनाश को धर्म बताया है. साल 2015 की फिल्म ‘MSG-2’ में बाबा राम रहीम कहते नजर आते हैं ये आदिवासी न इंसान हैं और न जानवर, ये शैतान हैं. हालांकि इसपर विवाद हुआ. भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरी हो चुके हैं लेकिन फिल्मों में आदिवासियों को दर्शाने का तरीका वही है.
सिर्फ ‘झींगा ला-ला हुर्र, हुर्र…’ जैसे नहीं होते आदिवासी
हिंदी फिल्मों में आदिवासियों को गैरजिम्मेदाराना, यथार्थ और अनुभव से दूर की जाने वाली अभिव्यक्तियों की तरह दर्शाया है. लेकिन इस बीच कुछ ऐसी फिल्में आई जिसमें आदिवासियों के जीवन में झांकने की कोशिश की गई थी, जिनमें ‘मृगया’, ‘आक्रोश’, ‘हजार चौरासी की मां’ जैसी फिल्में शामिल है. जिसमें एक धूर्त साहूकार को दिखाया गया था जो आदिवासियों का शोषण करता है. फिल्मों में आदिवासियों को सिर्फ जंगली की तरह ही ज्यादा दर्शाया गया है. अगर आदिवासियों के जीवन में झांकने की कोशिश करेंगे तो कई ऐसी बातें सामने आयेगी जिससे लोग अनभिज्ञ हैं. उनके रहन-सहन, उनका संघर्ष, उनकी बोलचाल, पहनावा, त्योहार जैसे कई बातें हैं जो फिल्मों में अछूते हैं. तमाम अभावों के बीच समृद्ध प्रकृति की गोद में आदिवासी मस्ती के साथ नाचता-गाता रहता है यह भी तो आसान नहीं. आधुनिकता से दूर आदिवासी समाज आज भी अपनी कई परंपराओं को जीवित रखे हुए है. हालांकि हाल के कुछ वर्षो में बाहरी संस्कृतियों का आक्रमण हुआ है लेकिन फिर भी दूर-दराज के क्षेत्रों में अभी भी वे तकरीबन वैसे ही है. ऐसे में अगर कहा जाये कि आदिवासी सिर्फ ‘झींगा ला-ला हुर्र, हुर्र…’ में दिखाये गये आदिवासियों की तरह ही होते हैं तो यह सरासर गलत होगा.
ड्रॉक्यमेंट्री में आदिवासी समाज
फिल्मों में आदिवासियों को केवल जंगलों को भाले-बरछे के साथ दिखाने के पीछे काफी हद तक औपनिवेशिक मानसिकता जिम्मेदार है. अब ड्रॉक्यूमेंट्री फिल्मों की बात करें तो ऐसी फिल्मों की संख्या काफी कम है जिनमें आदिवासी समाज को दर्शाया गया है. ज्यादातर फिल्में अंग्रेजी या क्षेत्रीय भाषाओं में बनी है. ‘झॉलीवुड’ नाम से छोटा नागपुर फिल्म इंडस्ट्री के बैनर तले कई फिल्में बनी है जिसमें आदिवासियों के जीवन को गहराई से दर्शाया गया है. कहा जा सकता है कि झारखंड में आदिवासी समाज अतीत और वर्तमान को लेकर जितनी फिल्में बन रही है उतनी भारत के किसी अन्य हिस्से में नही बन रही है.
जब भी किसी आदिवासी मुद्दे पर फिल्म बनाई जाती है तो आदिवासी समाज का यथार्थ कहीं खोया हुआ सा लगता है. हैरानी की बात है कि हिंदुस्तान में पूरे फिल्म के इतिहास में एक भी ऐसा आदिवासी कलाकार नहीं है जो आदिवासी की तरह महसूस कर सके, अपने समाज पर मंडरा रह खतरे से बचने के लिए कुछ कर सके. इसकी परंपराओं को फिल्मों में दर्शा सके. आदिवासी समाज का ऐसा चित्रण कर सके जो यथार्थ हो.