मुंबई : श्वेत-श्याम फिल्मों से लेकर रंगीन चलचित्रों तक भारतीय सिनेमा पर महात्मा गांधी के विचारों और दर्शन की अमिट छाप रही है. दीवार पर टंगी उनकी तस्वीर ने फिल्मों में कभी नायक को भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए प्रेरित किया, तो कभी शांति और अहिंसा का संदेश फैलाने के लिए उनके विचारों का सहारा लिया गया.
गांधी की जीवनी एवं उनके विचार कई दशकों से फिल्मकारों को प्रेरित करते आ रहे हैं. कुछ फिल्में उनके जीवन पर, तो कुछ अन्य उनके मूल्यों पर आधारित हैं. वर्ष 1954 की फिल्म ‘जागृति’ से लेकर 2006 की फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ तक, यह फेहरिस्त काफी लंबी है.
कवि प्रदीप ने ‘जागृति’ फिल्म के लिए ‘दे दी आजादी हमें बिना खड्ग, बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल…’ जैसे शब्दों के साथ देश के प्रति गांधी के योगदान को सुरो में पिरो दिया. इस युग की अन्य फिल्में भी गांधी के विचारों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
1957 में आयी दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म ‘नया दौर’ में मनुष्य बनाम मशीन के बीच बहस है. वी शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’ भी उसी साल रिलीज हुई थी, जिसमें छह अपराधियों का एक जेल वार्डन द्वारा पुनर्वास किये जाने की कहानी को केंद्र में रखा गया है. हाल-फिलहाल की फिल्मों में ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ ने ‘गांधीगिरी’ को नया आयाम दिया.
पत्रकार एवं ‘ए गांधीयन अफेयर : इंडियाज क्यूरिस पोर्ट्रेयल ऑफ लव इन सिनेमा’ के लेखक संजय सूरी के मुताबिक वर्ष 1980 के दशक तक भारतीय सिनेमा के नायक गांधीवादी विचारों से प्रेरित होते थे. वे अपने हाथों में समाजवाद की मशाल थामते थे, अत्याचार से लड़ते थे और धन एवं शारीरिक संबंध जैसी भौतिक चीजों से दूरी प्रदर्शित करते थे.
गांधी के जीवन से लिये गए अध्यायों पर कई सारी फिल्में हैं. इनमें सबसे चर्चित और सबसे सफल फिल्म रिचर्ड एटनबरो की 1983 की ऑस्कर विजेता फिल्म ‘गांधी’ है, जिसमें बेन किंग्सले ने मुख्य भूमिका निभायी. फिल्म ‘गांधी’ में उनकी हत्या तक के उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को छुआ गया है जबकि कई फिल्मों ने उनके जीवन के अलग-अलग चरणों को केंद्र में रखा.
फिल्म ‘गांधी, माय फादर’ (2007) में इसके निर्देशक फिरोज अब्बास खान ने गांधी और उनके सबसे बड़े बेटे हरिलाल के बीच के संबंधों को दिखाया गया है.
श्याम बेनेगल की फिल्म ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ में दक्षिण अफ्रीका में बिताये गांधी के समय को विषय वस्तु बनाया गया है. कुछ अन्य फिल्में भी हैं जिनमें गांधी को भी केंद्र में रखा गया है – ‘दि लेजेंड ऑफ भगत सिंह’, ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस : फॉरगोटेन हीरो’, ‘वायसराय हाऊस’ और टीवी कार्यक्रम ‘संविधान’ उनमें से कुछ हैं.
बॉलीवुड के कई अभिनेताओं ने भी फिल्मों में गांधी की यादगार भूमिका निभाई है, जैसे- ‘द मेकिंग ऑफ द महात्मा’ में रजत कपूर और ‘हे राम’ में नसीरूद्दीन शाह आदि. शाह ने अपने संस्मरण ‘ऐंड देन वन डे’ में लिखा है, 1926 में यंग इंडिया में एक आलेख में गांधी ने लिखा था कि जर्मन कंपनी उन पर एक फिल्म कंपनी का प्रचार करने का आरोप लगा रही है, जबकि सिनेमा से उनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा है.
महात्मा गांधी ने अपने जीवन में चंद फिल्में ही देखी हैं, जिनमें 1940 में विजय भट्ट का ‘राम राज्य’ शामिल है. खान ने कहा, वह जीवन चरित देखने में यकीन रखते थे. वह चाहते थे कि कि लोग महान लोगों के जीवन से प्रेरणा लें और खुद ही कुछ दिलचस्प चीजें करें. वह नहीं चाहते थे कि लोग जीवन से भागें (पलायनवादी बने), वह चाहते थे कि लोग जीवन की मुश्किलों का डट कर सामना करें.
बेनेगल ने कहा कि 1996 की फिल्म ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ चीजों को गांधी के नजरिये से समझने की थी. उन्होंने कहा, मेरा मानना है कि भारतीयों पर गांधी का जबरदस्त प्रभाव रहा है. जरूरी नहीं है कि यह सामने दिखे, लेकिन कहीं न कहीं यह करुणा, मानवता की भावना के रूप में प्रकट होते रहती है. फिल्म ‘गांधी’ में कस्तूरबा की भूमिका निभाने वाली रोहिणी हट्टंगड़ी ने कहा वह इस फिल्म की प्रबलता को तुरंत नहीं समझ पायी थी.
उन्होंने कहा, जब मुझे यह भूमिका मिली, मैंने आत्मकथा पढ़ी और महसूस किया, यह एक ऐसा जीवन है जिसका हर किसी को पालन करना चाहिए. ‘गांधी, माय फादर’ में गांधी की भूमिका निभाने वाले दर्शन जरीवाला का मानना है कि सांप्रदायिकता, आर्थिक विषमता और जातिवाद पर गांधी का क्षोभ अब भी वैध है.