अपने संपर्क को बिहार, झारखंड व पूर्वांचल के लिए अच्छी फिल्म बनाने में भुनाना चाहता हूं : नितिन चंद्रा

भोजपुर व मैथिली भाषा के फिल्मकार नितिन चंद्रा से डॉ रजनेश कुमार पांडेय की विशेष बातचीत क्षेत्रीय सिनेमा पर काफी सशक्त काम करना चाहते हैं नितिन चंद्रा फिल्म निर्देशक, निर्माता एवं पटकथा लेखक नितिन चंद्रा बीते दिनों रांची आये थे. अपने व्यस्त समय के बीच वो झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय के जनसंचार केंद्र में भी आये […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 11, 2016 11:34 AM

भोजपुर व मैथिली भाषा के फिल्मकार नितिन चंद्रा से डॉ रजनेश कुमार पांडेय की विशेष बातचीत


क्षेत्रीय सिनेमा पर काफी सशक्त काम करना चाहते हैं नितिन चंद्रा

फिल्म निर्देशक, निर्माता एवं पटकथा लेखक नितिन चंद्रा बीते दिनों रांची आये थे. अपने व्यस्त समय के बीच वो झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय के जनसंचार केंद्र में भी आये और यहां के छात्रों से रूबरू हुए. इसी दौरान उनके साथ एक संक्षिप्त बातचीत हुई. नितिन चंद्रा लंबे समय से भारतीय खासकर बिहार और झारखंड के अनेक भाषाओं की फिल्मों पर काम कर रहे हैं. अभी हाल ही में उनकी फिल्म ‘मिथिला मखान’ को मैथिली भाषा की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला. वह भोजपुरी भाषा की एक और फिल्म ‘बैलून’ पर भी काम रहे हैं. लंबे समय से सिनेमा की दुनिया में संघर्ष कर रहे नितिन चंद्रा को आज लोग उनकी क्षेत्रीय भाषाओं पर बनायी गयी फिल्मों के लिए जानने लगे हैं. पेश है नीतीन चंद्रा के साथ झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय के जनसंचार केंद्र के सहायक प्रोफेसर डॉ रजनेश कुमार पाण्डेय की संक्षिप्त बातचीत :

प्रश्न : नीतीनजी, आप फिल्म इंडस्ट्री से हैं, प्रियंका चोपड़ा जो की हिंदी फिल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री हैं, उन्होंने शहर-ए-बनारस पर एक भोजपुरी फिल्म का निर्माण किया जिसका नाम है ‘बम-बम बोल रहा है काशी’. आपने इस फिल्म की आलोचना कई मुद्दों पर की है. आपका कहना है की इसमें भोजपुरी के साथ बिहार की अस्मिता को ठेस पहुँचाया गया है. आपने किन मुद्दों पर उनकी इस फिल्म की आलोचना की है?

उत्तर : मैं बिहारी बिरादरी से हूँ पहले. बाकी फिल्म वगैरह जो भी हो मेरा काम अलग है, कोई भी चीज जो बिहार, झारखंड के खिलाफ या पूर्वांचल के खिलाफ होगा, उस पर हम खुल कर बात करें. अगर वो गलत हैं तो हम उससे निबटें. चाहे वो सिनेमा हो या कास्ट के ऊपर हो या कहीं किसी को किसी ने मार दिया या किसी का अपहरण हो गया तो उस पर मैं शुरू से ही काफी वोकल रहा हूँ. एक तो भोजपुरी सिनेमा को जिस तरह से आज प्रमोट किया जा रहा है वो अपने आप में काफी दुखद है. हम में से बहुत कम लोग हैं जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा को सही तरीके से समझा है. कई तो ऐसे भी नहीं हैं जिन्होंने पिछले दस वर्षों में कोई भोजपुरी फिल्म देखी हो. भोजपुरी भाषा और संस्कृति को समझे बिना हम उस पर बात शुरू करते हैं. जहां तक बात है फिल्म ‘बम-बम बोल रहा है काशी’ जिसे प्रियंका चोपड़ा और उनकी मां ने प्रोड्यूस किया है तो पहले तो हम काफी खुश हुए कि ‘प्रियंका चोपड़ा’ इस फिल्म को लेकर आ रही हैं. परंतु जब हमने इस फिल्म का ट्रेलर देखा तो हमें बहुत निराशा हुई. बात यहीं तक नहीं है. हमारे यहां उनकी इस फिल्म को लेकर उन्हें सिर पर बिठायाजा रहा है. वो भी ऐसे इंसान को जिसने बिहार की भाषा को और धूमिल किया है.

प्रश्न : नीतीनजी, मेरा दूसरा सवाल आप से यह है कि ये नीतीन चंद्रा के अंदर ऐसा कौन-सा बिहारी मन है चाहे वो एक निर्देशक के तौर पर हो या एक दर्शक के तौर पर जो ‘बम-बम बोल रहा है काशी’ फिल्म बनने के बाद उबल गया. काफी सारे बिहारी आज फिल्म की दुनिया में हैं और फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं. चोट आपको ज्यादा क्यों लगी?

उत्तर : मैं आज से नहीं उबला हूँ. मैं 1999-2000 में जब मैं दिल्ली गया अपनी प्लस टू की पढ़ाई करने के बाद, तब से मैं उबल ही रहा हूँ. उस दौरान बिहार का बंटवारा हुआ और झारखंड बना. तब बिहार के लोग बिहारी और झारखंड के लोग झारखंडी कहलाये. उस वक्त दिल्ली में तकरीबन सभी झारखंड के लोग को बिहारी ही समझते थे. अब चाहे अच्छे या बुरे रूप में जैसे भी हो. मैंने जो बात वहां नोटिस की वो ये कि वहां लोग ‘बिहारी’ शब्द को नाकारात्मक रूप में इस्तेमाल करते थे. मैं खुद ऐसे सैकड़ों लोगों को जानता था जो अपने आप को बिहारी कहने से कतराते थे. फिर मैं वहां से पुणे यूनिवर्सिटी गया तो वहां भी वही हालत थी. मैंने हैदराबाद, बेंगलुरु में भी वही देखा. चेन्नई में भी मैंने वही देखा. देश के अलग-अलग हिस्सों में भी मैंने यही देखा. बंगाल के अंदर कोलकाता में भी मैंने देखा कि ‘बिहारी’ शब्द को लोग रिस्पेक्ट के तरीके से नहीं देखते थे. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मैंने वही देखा. मैं दुबई में था, न्यूयॉर्क में था, टोरोंटो में, सिंगापुर में भी मुझे यही नजर आया. तो ये जो उबाल आपको ‘बम-बम बोल रहा है काशी’ के बाद दिखा, ऐसा नहीं है. 2006-07 के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में मेरे अलग-अलग आलेखों को देखें तो आपको ये नजर आएगा. दो हजार आठ में मैंने फिल्म बनाई थी ‘ब्रिंग बैक बिहार’. ये आप अपने क्लास के बच्चों को जरूर दिखाएं. ये एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म है. इस डॉक्यूमेंट्री में यही दिखाया गया है कि कहां क्या कैसे हुआ? मैं वो आदमी नहीं हूँ कि बस बैठ कर आलोचना कर रहा हूँ. मैंने ‘देसवा’ फिल्म बनायी. एक एकमात्र भोजपुरी फिल्म है जो गोवा के अंदर अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाई गयी.

प्रश्न : नितिनजी, आपने ‘देसवा’ के बाद ‘मिथिला मखान’ फिल्म बनायी. क्या ‘देसवा’ के बारे में कुछ बताएंगे?

उत्तर : ‘देसवा’ जो फिल्म है वो इन्हीं सब मुद्दों पर आधारित है. हालांकि, ये एक क्राइम थ्रिलर है. इसका ट्रेलर आपको यूट्यूब पर मिल जाएगा. इस फिल्म में आशीष विद्यार्थी भी हैं, नीतू चंद्रा भी हैं, सोनू निगम, श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान के गाने भी हैं.

प्रश्न : नीतीनजी, भोजपुरी पर अपने काम के बारे में बतायें?

उत्तर : लगातार पिछले कई वर्षों के में भोजपुरी सिनेमा पर लिखता रहा हूँ. आपको मेरे सैकड़ों आलेख मिल जाएंगे. कई ब्लॉग के लिए भी लिखता रहा हूँ. मोहल्ला, बरगद ऐसे कई ब्लॉग्स हैं जिस पर आपको मेरे लिखे आलेख मिल जाएंगे. कई अखबारों में आप जब मेरे लिखे आलेख पढ़ेंगे तो आपको लगेगा कि ‘बम-बम बोल रहा है काशी’ तो एक रिसेंट फिनोमेना है. मैं ये काम सात-आठ वर्षों से कर रहा हूँ. एक बात और बता दूँ कि मैं अपनी मर्जी से भोजपुरी की फिल्म बनाता हूँ. वरना अगर मुझे बॉलिवुडिया फिल्मों का शौक होता तो मेरे घर में ही बॉलिवुड की एक हिरोइन रहती है. ये काम मैं बड़े आसानी से कर सकता था.

प्रश्न : मेरा सवाल इसी से मिलता-जुलता है. हमें पता चला कि नीतू चंद्रा, जो हिंदी सिनेमा की अभिनेत्री हैं, वो आपकी बहन हैं. फिल्म इंडस्ट्री में किसी के परिवार का होना किसी के लिए कितना सहयोगात्मक होता है?

उत्तर : आपको सही पता चला है. नीतू चंद्रा मेरी बहन हैं. देखिये, इससे काफी सहयोग मिलता है. अगर आपके माता-पिता, चाचा, भाई-बहन अगर फिल्म इंडस्ट्री में हैं या किसी भी इंडस्ट्री में हैं तो फायदा तो होना ही है. अगर मान लीजिए की मेरे चाचा रांची के बड़े बिल्डर हैं तो मैं भी उनके बगल में एक छोटी कंपनी खोल दूंगा. वो तो मेरी मदद ही करेंगे ना. पूरी की पूरी राजनीति, बड़ा व्यापार परिवार से ही तो चल रहा है. मेरी बहन नीतू फिल्म इंडस्ट्री की एकमात्र अभिनेत्री हैं जो बिहार से हैं. उन्होंने काफी कुछ किया है. वो लगातार संघर्ष कर रही हैं. अभी भी उनकी दो फिल्में आने वाली हैं रणदीप हुड्डा के साथ. बहुत सहयोग मिलता है. अब सोनू निगम से मुझे अपनी फिल्म के लिए गाना गाने के लिए कहना था. अब सोनू निगम तो मुझे नहीं जानते थे. वो नीतू चंद्रा को जानते हैं, बिहार के भी कई लोग नीतू चंद्रा को जानते हैं. उन्होंने नीतू की कई फिल्में देखी हैं. गरम मसाला, ट्रैफिक सिग्नल, वन-टू-थ्री, ओए लकी लकी ओए. तो मेरी फिल्म के लिए नीतू ने सोनू निगम से बात करली. फिर सोनू हमारी फिल्म के लिए गाना गाने को राजी हो गये. इस तरह से आप देखते हैं कि कैसे आपको इंडस्ट्री के अंदर सहयोग मिल जाता है और तो और नीतू हमारी फिल्मों की सह-निर्माता भी हैं. उन्होंने मिथिला मखान, देसवा और भी कई प्रोजेक्ट में हमारा निर्माता के बतौर सहयोग किया है. हम लोगोंसे अपने संपर्क को भोजपुरी, झारखंड और पूर्वांचल के अच्छी फिल्मों के लिए, अच्छे कलाकार को फिल्म में काम करने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं. आज भोजपुरी फिल्मों का यह हाल है कि कोई भी भोजपुरी फिल्मों में काम नहीं करना चाहता है. खुद भोजपुरी के ही लोग भोजपुरी फिल्मों में काम नहीं करना चाहते हैं. भोजपुरी के ऐसे सैकड़ों छोटे एक्टर्स हैं जो भोजपुरी फिल्मों में काम नहीं करना चाहते हैं. मजबूरी में वो बस इसलिए काम करते हैं क्योंकि वो मुंबई में रहते हैं, उन्हें कुछ पैसा भजपुरी फिल्मों में मिल जाता है. तो ये करना पड़ता है और इसलिए भी क्योंकि उन्हें लगता है कि कुछ तो काम मिल रहा है. अब आशीष विद्यार्थी को ही लीजिए.वे भारतीय सिनेमा के जाने-माने कलाकार हैं. उन्होंने मेरी भोजपुरी फिल्म ‘देसवा’ में काम किया है. आशीष विद्यार्थी हमें नहीं जानते थे, पर नीतू की वजह से वो फिल्म में काम करने को राजी हो गये.

प्रश्न: नीतीनजी, ये बतायें कि आप का फिल्मों की तरफ रुझान आपकी बहन नीतू चंद्रा के बॉलिवुड में करियर बनाने से पहले से है या आपने उन से प्रभावित हो कर इस क्षेत्र में कदम रखा?

उत्तर : मेरा रुझान पहले से है. जब में पुणे यूनिवर्सिटी गया था 2003 में तो उस वक्त एक बड़ा ‘एंटी बिहार मूवमेंट’ हुआ था. उस वक्त मैंने इस विषय पर कुछ डॉक्यूमेंट्री बनाने का विचार किया और देखिए फिल्म एक बड़ा ही सशक्त माध्यम है. इससे आप अपनी चीजों को बहुत ही मजबूती से सामने ला सकते हैं. इसे लेकर सेंसर भी काफी गंभीर है. अखबारों में क्या छपना है, इसे लेकर शायद कोई उस ढंग की सेंसरशिप देखने को नहीं मिलता जो फिल्मों पर मिलती है.


प्रश्न : मतलब सिनेमा में आपको पहले से इंटरेस्ट है.

उत्तर : देखिए इंटरेस्ट तो कह सकते हैं. पर मैं इसमें यह बात भी जोड़ना चाहूँगा कि सिनेमा ने मुझे चुना है. ये सेंस मेरे अंदर था ही और अपने राज्य को लेकर मैं पहले से ही संवेदनशील हूँ. अब मेरी इस संवेदनशीलता से सिनेमा जुड़ गया है तो मैं फिल्म बनाने लगा.

प्रश्न : नीतीनजी, इसी वर्ष एक मराठी फिल्मआयी ‘सैराट’. इस फिल्म ने पूरे महाराष्ट्र में बेजोड़ व्यापार किया है. यह फिल्म हमारी जातीय चेतना को कुरेदती है. फिल्म में अंतरजातीय शादी और जाति से जुड़े अनेक मुद्दों को बेहद गंभीरता से उठाया गया है. महाराष्ट्र से बाहर भी एक खास बौद्धिक वर्ग है जो जाति को लेकर काफी क्रिटिकल है और जाति के खिलाफ बात करता है ने इस फिल्म को देखा और इसकी सराहना की. नीतीनजी, जैसा कि आप जानते हैं कि बिहार के अंदर भी जातीय चेतना काफी मजबूत है और उसका प्रभाव भी हमारे समाज पर है. आप क्या अपनी फिल्मों के माध्यम से बिहार के अंदर जो जाति व्यवस्था है, उसे चित्रित करना चाहते हैं?

उत्तर: बिल्कुल, क्यों नहीं. बिल्कुल करना चाहूँगा और किया भी है. अपनी फिल्म ‘देसवा’ में जातियों के नाम लेकर कई डॉयलॉग्स हैं. उसमें तो एक डॉयलॉग है कि, “देखो ब्राह्मण, राजपूत, लाला की लड़ाई में तुम्हारा क्या हाल है”. तो जातियों का नाम लेकर बातें कीगयी हैं लेकिन ‘सैराट’ इसलिए सफल है क्योंकि ‘सैराट’ जिस भाषा का सिनेमा है, वहां लोग उससे गहराई से जुड़े हुए हैं. आपका अगर दरभंगा का कोई आदमी आप से मिलेगा तो आप से ‘मैथिली’ में बात नहीं करेगा. वो आप से हिंदी में बात करेगा. तो आप जब अपनी भाषा से जुड़े ही नहीं हैं तो आपके यहां कोई ‘सैराट’ कैसे खड़ा होगा. उनका बिजनेस इसलिए भी अच्छा है क्योंकि महाराष्ट्र के करोड़ों लोग अपनी भाषा से गहराई तक जुड़े हैं. दरभंगा के लोग की तरह थोड़े कि अपने शहर में भी वो मैथिली में बात नहीं कर रहे हैं. हमारे यहां तो भाषाओं का हाल खिचड़ी जैसा है.

प्रश्न: नीतीनजी, आप बिहार से निकल कर दिल्ली गये, वहां से पुणे जाकर फिल्मों पर कुछ कोर्स किया और फिर आप बिहार आकर यहां की भाषाओं पर फिल्म बनाते हैं. अपनी इस यात्रा के बारे में संक्षिप्त रूप से प्रकाश डालें.

उत्तर : देखिए अपनी पढ़ाई के दौरान मैं दिल्ली में था, वहां चार साल बिहारी पहचान के साथ रहा और खूब गालियां सुनी. यह बिहार के ज्यादातर लोगों के साथ होता है. अगर आपने अपनी पहचान को छुपा लिया तो आप बच गये. पुणे में भी गया तो इन सब पर सोच रहा था. मेरे कई मित्र वहां भी थे जो वहां भी अपनी आइडेंटिटी को छुपा कर रह रहे थे. हमारे यहां तो यह हाल है कि जैसे ही लोग बिहार से बाहर मुगलसराय पहुँचते हैं तो कई तो खुद को बनारस का बताने लगते हैं तो कई खुद को कानपुर का. तो जबमैं पुणे में था तो मैं इन सब बातों का सामना कर रहा था. पुणे यूनिवर्सिटी में अपने कोर्स के दौरान हमें फाइनल ईयर में एक प्रोजेक्ट बनाना पड़ता था. मैंने एक फिल्म बनायी थी ‘दि आउटसाइडर’.

यहएक डॉक्यूमेंट्री फिल्म थी.यह फिल्म एक बिहारी लड़के पर आधारित थी जो बिहार से महाराष्ट्र रेलवे की परीक्षा देने गया हुआ है. वहां रेलवे स्टेशन पर उसकी मुलाकात एक मराठी लड़के से होती है और कैसे उनके बीच गंभीर सामाजिक-राजनीतिक विमर्श होता है. पूरी फिल्म इसी पर आधारित है.

प्रश्न : बीच में टोकते हुए… आप पुणे यूनिवर्सिटी में कितने दिनों तक रहे?

उत्तर : मैं वहां 2003-05 तक रहा. दो वर्षों का हमारा कोर्स था. (नीतीनजी, ने मुझे फिर बीच में ही टोकते हुए कहा कि) जब मैं ‘दि आउटसाइडर’ बना रहा था तो वहां लोगों को लगा कि बिहार के अंदर भी संवेदनशीलता है. फिर जब मैं मुंबई गया तो देखा की लोग भोजपुरी फिल्मों का बड़ा मजाक बनाते हैं.

लोग बोलते थे कि कैसी-कैसी फिल्में बनाते हैं ‘बिहारी’.यह सब सुन कर काफी बुरा लगता था. तो मेरा यह कहना है कि सिर्फ शिकायत और अपनी खुद की भाषाई फिल्मोंकी आलोचना से कुछ नहीं होगा. हमें इससे निबटने के लिए कुछ करना होगा, अच्छा सोचना होगा. अच्छा सोचने से भी ज्यादा जरूरी है अच्छा करना. सिर्फ बोलने से कुछ भी नहीं होगा. आपको करना होगा. मैंयह सब बताकर यही कहना चाहता हूँ कि मैंने कभी बिहार छोड़ा ही नहीं. देखिए पलायन एक मानसिक स्थिति है. यह शारीरिक स्थिति नहीं है. जैसे आपको किसी से प्रेम है, तो प्रेम एक मानसिक स्थिति है. आपको किसी से प्रेम है तो है. यह पूछ कर नहीं होता कि मैं आप से प्रेम करूं क्या. ठीक वैसे ही पलायन भी एक मानसिक स्थिति है. आप मंबई में रहें और मुंबई में रहते हुए भी अगर आप दिन भर बिहार की बात करें तो फिर बिहार तो छूटा नहीं न और पलायन किस बात का?


प्रश्न : नीतीनजी, समय काफी कम है. अब आप से आखिरी सवाल. आज हम हनी सिंह को सुन रहे हैं. एक नौजवान उन गानों पर काम कर रहा है जिसका हमारे यथार्थ से कोई लेना-देना ही नहीं है. बॉलिवुड में इस तरह के लोगों को प्रमोट भी किया जा रहा है. आप इन सब पर क्या सोचते हैं? मैं जानना चाहता हूँ कि आपकी इस पर क्या राय है?

उत्तर : देखिए ऐसा है कि मैं हनी सिंह के गानों को फॉलो नहीं करता.

प्रश्न : बीच में टोकते हुए – मैं बस आपकी टिप्पणी बॉलिवुड के इस खास ट्रेंड पर क्या है जानना चाहता हूँ?

उत्तर : देखिए न मैं बॉलीवुड का हूँ ना बॉलीवुड मेरा है. मैंने पिछले दस वर्षों में जो अपना लक्ष्य तैयार किया है वो यह कि मैं भोजपुरी और मैथिली फिल्मों को ऑस्कर तक ले जाना चाहता हूँ. मैं अपनी फिल्मों को नेशनल अवार्ड तक पहुँचाना चाहता हूँ. हनी सिंह क्या कर रहे है क्या नहीं कर रहे, यह विषय मेरा नहीं है. बॉलीवुड से मेरा उतना ही नाता है जितना एक बिहारी होने के नाते मेरा तमिलनाडु से है. हां, इतना जरूर है कि कुछ अच्छी कहानियां अगर मिल जाए तो मैं हिंदी फिल्मों पर काम कर सकता हूँ. परंतु यह मेरी प्राथमिकता नहीं है. मेरी प्राथमिकता है मेरी मातृभाषा. मेरी भाषाएं ‘भोजपुरी’ और ‘मैथिली’. बाद में है तमिल, तेलगू या बांग्ला.

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