बदलाव काम के प्रति जुनून पैदा करता है : राजीव उपाध्याय
कुछ कर गुजरने का जज्बा और लक्ष्य के प्रति समर्पण हो तो देर-सबेर मंजिल हासिल हो ही जाती है. बिहार के नालंदा में जन्मे और पटना से पढ़ाई कर थिएटर के जरिये हिंदी सिनेमा में जगह बना चुके राजीव उपाध्याय की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही. फिजिक्स से हायर स्टडीज करते वक्त घरवालों को […]
कुछ कर गुजरने का जज्बा और लक्ष्य के प्रति समर्पण हो तो देर-सबेर मंजिल हासिल हो ही जाती है. बिहार के नालंदा में जन्मे और पटना से पढ़ाई कर थिएटर के जरिये हिंदी सिनेमा में जगह बना चुके राजीव उपाध्याय की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही. फिजिक्स से हायर स्टडीज करते वक्त घरवालों को लगा बेटा आगे चलकर इंजीनियर बनेगा, पर अभिनय व लेखन की चाहत ने बेटे को थिएटर के रास्ते सिनेमा तक पहुंचा दिया. पटना में अक्षरा आर्ट नामक थिएटर ग्रुप के नाटकों में अभिनय, निर्देशन व लेखन से अपनी पहचान बना चुके राजीव आज बॉलीवुड में बतौर एडिटर स्थापित हो चुके हैं. प्रभात खबर के गौरव ने बातचीत के दौरान उनकी जिंदगी के ऐसे ही कुछ पहलुओं को छूने की कोशिश की.
कल्कि कोचलिन और सुमित ब्यास अभिनीत रिबन से बतौर एडिटर जुड़े राजीव इस फिल्म के जरिये बतौर लेखक और एसोशिएट डायरेक्टर नयी पारी की शुरुआत कर रहे हैं. वह रिबन से पहले सिंह इज किंग, रॉक ऑन, गजनी और दिल्ली 6 जैसी फिल्मों की मेकिंग वीडियोज एडिट कर चुके हैं. बतौर इंडिपेंडेंट एडिटर पहली फिल्म कुटुंब हाथ आयी पर तीन नवंबर को रिलीज होने वाली रिबन पहले बनकर तैयार हो गयी. रिबन के बाद राजीव बतौर निर्देशक अपनी ही कहानी पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे हैं.
सबसे पहले अपने बारे में बताएं?
जन्म नालंदा में हुआ. पिताजी स्कूल टीचर थे. सो घर में पढ़ाई का माहौल रहा. शुरुआती कुछ वर्ष गांव में बिताने के बाद पटना आ गया. ग्रेजुएशन तक की शिक्षा द्वारिका कॉलेज से हासिल की. फिजिक्स से इंटर करने के बाद माता-पिता को लगा था कि मैं आगे चलकर इंजीनियरिंग करूंगा. पर पढ़ाई के दौरान ही थिएटर में नाटकों का चस्का लग गया. जिसके बाद मेरी दुनिया एक अलग ही रास्ते पर चलने लगी. बिहार आर्ट थिएटर से दो साल का डिप्लोमा कोर्स किया. पहले साल तक तो घरवालों को इस बारे में पता ही नहीं था. इसी दरम्यान जब नाटकों का सिलसिला शुरू हुआ तब जाकर उन्हें पता चला. फिर अक्षरा आर्ट्स नामक थिएटर ग्रुप में अभिनय, निर्देशन व लेखन किया. तकरीबन सात-आठ सालों तक थिएटर करने के बार फाइनली मुंबई का रुख किया.
थियेटर और सिनेमा में काम की बात पर फैमिली वालों का क्या रिएक्शन रहा?
मेरी गिनती पूरे खानदान में एक पढ़ाकू लड़के की थी. सबको मुझसे इतनी उम्मीद थी कि ये लड़का आगे चल कर जरूर किसी बड़े पद पर जायेगा. ऐसे में सिनेमा-थिएटर की बात मम्मी-पापा के लिए बिलकुल शॉकिंग थी. उनकी उम्मीदें टूट चुकी थीं. तब मैंने उनसे जब कहा कि काम तो मुझे इसी फील्ड में करना है, ऐसे में आपका सपोर्ट मुझे और ताकत देगा. यह सुन कर उन्होंने धीरे-धीरे मेरी मरजी स्वीकार कर ली.
एक मिडिल क्लास फैमिली से होते हुए सिनेमा की फैंटेसी वाली दुनिया से रुझान पहली बार कब और कैसे महसूस हुआ?
बचपन से ही स्कूल में ड्रामा व कविता पाठ किया करता था. ड्राइंग, एक्टिंग जैसी एक्टिविटीज शुरू से आकर्षित करती रही थी. पर हाइस्कूल के वक्त पढ़ाई के बोझ तले वो इच्छाएं अंदर कहीं दब कर रह गयी थी जो कॉलेज के वक्त फिर से उभर कर बाहर आ गयी.
थिएटर से सिनेमा तक की जर्नी कैसी रही?
पटना में रहने के दौरान नाटकों में अभिनय के साथ-साथ दो नाटकों बिल्लेसुर बकरीहा और पछतावा एक मसखरे का निर्देशन भी किया. फाइनली जब मैं मुंबई आया तब मुझे एक बात समझ आ गयी थी कि निर्देशन ही मुझे ज्यादा आकर्षित कर रहा है. तब मैंने सिनेमा के तकनीकी पक्षों को जानना शुरू किया. 2008 में मैंने एडिटिंग सीखने के लिए एडमिशन लिया. फिर कुछ वक्त बाद मुझे कुछ बड़ी फिल्मों, मसलन सिंह इज किंग, रॉक ऑन, गजनी, दिल्ली 6 जैसी फिल्मों के मेकिंग वीडियोज एडिट करने का मौका मिला. और इस तरह जर्नी शुरू हुई. आगे जाकर मुझे अता पता लापता, ट्वेल्व स्टोरीज, कुटुंब और रिबन जैसी फिल्म मिली, जिसकी एडिटिंग की पूरी जिम्मेदारी मेरे ही ऊपर थी. फिल्म मेकिंग से जुड़ने की एक वजह यह भी रही कि मुंबई आने के बाद कोई गॉडफादर ना होने की वजह से मुझे निर्देशन का कोई काम मिल नहीं रहा था. तब मैंने सोचा क्यों ना मेकिंग के जरिये राह तलाशूं. इससे तकनीकी जानकारी भी हो जायेगी और आगे जाकर अपने मन की फिल्में खुद भी बना सकूंगा.
चलिए रुख बिहार की ओर करते हैं. आपको नहीं लगता इस मुकाम पर पहुंचने के बाद बिहार के सिनेमा में बदलाव की कुछ उम्मीद आपसे भी की जाये.
बिलकुल होनी चाहिए. और मुझे लगता है बदलाव की शुरुआत बिहार में हो चुकी है. चूंकि स्थितियां इतनी खराब हो चुकी थी कि उन्हें सुधरने में थोड़ा वक्त लगेगा. पर देशवा, मिथिला मखान और अनारकली ऑफ आरा के जरिये उस बदलाव ने शेप लेना शुरू कर दिया है. अब जब मैं खुद अपने निर्देशकीय पारी की शुरुआत करने जा रहा हूं, तो उम्मीद करता हूं जैसे ही मुझे बिहारी पृष्ठभूमि पर कोई अच्छा विषय मिलेगा, एक अच्छी फिल्म जरूर बनाऊंगा.
बिहार में अपने वक्त के थिएटर और आज के थिएटर में कितना अंतर पाते हैं?
ईमानदारी से कहूं तो आज के थिएटर की स्थिति से दु:ख होता है. हमारे वक्त में नाटक करने के लिए पैसे का कोई स्रोत नहीं होता था. हम खुद ही मिल कर पैसे इकठ्ठा करते और मंचन करते. आज नाटकों के लिए सरकारी ग्रांट की भी शुरुआत हो चुकी है. पर पैसे मिलने के बाद स्थितियां सुधरने के बजाय बिगड़ती चली गयी. पैसे के खेल में नाटकों के प्रति कलाकारों और निर्देशकों की ईमानदारी खत्म होती जा रही है. नाटकों की आत्मा मारकर पैसे बनाने का खेल शुरू हो चुका है.
एज एन एडिटर आप फिल्म से कितना संतुष्ट हो पाते हैं?
यहां भी मैं ईमानदारी से कहूंगा कि आजकल की कहानियां ही संतुष्टि नहीं दे पाती, जिससे काम का मजा किरकिरा हो जाता है. एज एन एडिटर ऐसी फिल्मों की तलाश रहती है जिसमें करने को कुछ नया मिले. पर आजकल सिनेमा के नाम पर बस पैसों का बाजार चल रहा है. यही वजह भी रही कि इतने समय काम करने के बाद अब अपने पुराने पैशन (लेखन व निर्देशन) की ओररुख कर रहा हूं. खुद की ईमानदार सोच वाली कहानी गढ़ने की कोशिश कर रहा हूं.
सिनेमा इंडस्ट्री में डिजिटल प्लेटफॉर्म के आने को किस नजरिये से देखते हैं?
मुझसे पुछें तो मैं इसे पूरी तरह पॉजिटिव मानता हूं उन लोगों के लिए जो पैसे की वजह से अपनी सोच और क्रिएटिविटी को आकार नहीं दे पाते थे. आज उनके पास हजारों मौके हैं. उन सोच को लोगों तक पहुंचाने का. सोशल मीडिया, यूट्यूब के जरिये शार्ट फिल्म्स आज हर हाथ में चंद मिनटों में उपलब्ध हो जा रहे हैं. और नेटफ्लिक्स व अमेजॉन के आने से नये-नये आयडियाज और कहानियां भी सामने आ रही हैं. अब नयी प्रतिभाओं को पैसे की फिक्र करने की जरूरत नहीं होती. अगर आपके पास कुछ अलग और उम्दा है तो ये प्लेटफार्म्स आपको हाथों-हाथ लेते हैं.
थिएटर एक्टर एंड डायरेक्टर, फिल्म एडिटर के बाद अब आगे राजीव के और कौन से रूप देखने को मिलेंगे?
अभी अपनी एक स्क्रिप्ट लिख रहा हूं. जल्द ही घोषणा करूंगा. इस स्क्रिप्ट पर बनने वाली फिल्म से निर्देशकीय पारी की शुरुआत करने वाला हूं. अगले साल तक फिल्म पूरी करने की योजना है.