रविशंकर उपाध्याय
-ठुमरी गायकी की परंपरा को मिला रस-रंग और भाव
पटना : ठुमरी भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह गायन शैली है, लेकिन इसमें रस, रंग और भाव की प्रधानता ने बिहार में ही आकार लिया. लोकधुनों से अनुप्राणित हर दिल अजीज ठुमरी विभिन्न भावों को प्रकट करने वाली वह शैली है जिसमें शृंगार रस की प्रधानता होती है इसमें रागों के मिश्रण होते हैं जिसमें एक राग से दूसरे राग में गमन की भी छूट होती है.
ठुमरी के बिहार में फैलने की कहानी बहुत ही दिलचस्प है. कहते हैं जब औरंगजेब ने अपने पोते अजीमुश्शान को 1703 ई में बिहार का सूबेदार बनाकर भेजा तो उसने पटना में एक अदालत की स्थापना की और शाही फरमान के तहत पटना का नाम अजीमाबाद रखा. वह अजीमाबाद को दूसरी दिल्ली बनाना चाहता था. उसने सांस्कृतिक गतिविधियों को इतना बढ़ावा दिया कि उसी दौर में ठुमरी, दादरा, गजल और चैती गायन बिहार की खासियत बन गयी. पटना के अलावा गया, मुजफ्फरपुर, मुंगेर, भागलपुर और सहरसा ठुमरी के केंद्र बनकर गायन की इस परंपरा को समृद्ध कर दिया.
1811 ई में 700 रुपये में एक रात मुजरा गाती थीं महताब
बिहार की संगीत परंपरा में गजेंद्र नारायण सिंह लिखते हैं कि फ्रांसीसी यात्री बुकानन 1811-12 के दरम्यान पटना आये थे. उन्होंने अपने यात्रा संस्मरण में जिक्र किया है कि पटना सिटी में पांच ऐसी मशहूर तवायफें थीं जिनकी ख्याति चारों ओर फैली हुई थी. इसमें महताब सबसे हसीन थी और गाने में भी निपुण थी. बुकानन जब पटना आये थे तो महताब 36 साल की थी और उस वक्त उसकी रात भर के मुजरे की फीस 700 रुपये थी. उसी समय राजेश्वरी बाई भी अपने जमाने की मशहूर तवायफ थी, उसके गले में बड़ा दर्द था. पटना सिटी की जोहरा तो ठुमरी गाने में अव्वल थीं. ठुमरी के उस्ताद हारमोनियम वादक भैया गणपत राव लट्टू होकर अपनी कलाई तक बढ़ा दी थी. मियां अलीकदर के तबले और बहादुर खां की सारंगी की खनक से ठुमरियों में चार चांद लग जाते थे. यानी उसी समय ठुमरी अपने शबाब पर थी.
गया ने ठुमरी गायन में जोड़ी हारमोनियम संगत
गया में ठुमरी गायन अलग शैली और अंदाज में विकसित हुई. यहां पर चपलता से हटकर ठाह की ठुमरी विकसित हुई. यहां पंडों द्वारा आयोजित महफिलों में गायक या गायिका के साथ तीन-चार हारमोनियम की संगत विस्मित करने वाली होती थी. पिंडदान के केंद्र गया में पितृपक्ष के समय लोग पिंडदान करने आते थें और पुरबिया गायकी का आनंद लेते थे. प्रसिद्ध कला समीक्षक रवींद्र मिश्र ने लिखा है कि वैसे तो ठुमरी के साथ संगत में सारंगी बजती थी पर ठुमरी गायन में हारमोनियम संगत की शुरुआत ग्वालियर के भैया गणपत राव ने गया में ही की. बाद में उन्हीं से कई लोगों ने गया में हरमोनियम की शिक्षा ग्रहण की. गया की मशहूर गायिका ढेला बाई अपनी सुरीली गायकी की बुंलदी पर थीं. कोलकाता से पूरब गायन के फनकार पंडित रामूजी मिश्र जब गया आये तो उन्होंने गया गायकी को नया विस्तार और आयाम दिया.