100 years of Raj Kapoor: भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग के एक सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ रहे राज कपूर का यह जन्म शताब्दी वर्ष है. इस मौके पर राज कपूर की सिनेमाई विरासत को लेकर विचार-विमर्श, उनकी निजी जिंदगी से जुड़ी अनछुए पहलुओं एवं कपूर खानदान के सदस्यों के साक्षात्कार सुर्खियों में बने हुए हैं. राज कपूर की जयंती से पहले कपूर खानदान की तीसरी और चौथी पीढ़ी के सदस्य प्रधानमंत्री मोदी से औपचारिक मुलाकात कर उन्हें इस अवसर पर 13 दिसंबर से 15 दिसंबर तक आयोजित होने वाले राज कपूर फिल्म महोत्सव के लिए आमंत्रित भी कर चुके हैं.
राज कपूर को लेकर जब भी बात निकलती है, तो उन्हें भारतीय सिनेमा के ‘शोमैन’ और भारतीय सिनेमा का ‘चार्ली चैप्लिन’ जैसे विशेषणों में बांधने की होड़-सी मची रहती है. सिनेमा के कुछ गंभीर अध्येयता उनकी सिनेमाई विरासत की व्याख्या करते हैं, तो उन्हें नेहरू युग में समाजवादी विमर्श को रुपहले पर्दे पर जीवंत करने वाले एक कामयाब अभिनेता, निर्देशक-निर्माता के तौर पर पाते हैं. राज कपूर के लिए इस्तेमाल होने वाले इन सारे विशेषणों की परिभाषाएं पहले से ही तय हैं जिनके खांचों में राज कपूर के व्यक्तित्व एवं योगदान को रखने की कोशिश की जाती है. फिर चाहे वो एक महान शोमैन के तौर पर राज कपूर को देखने का चलन हो या फिर उनकी फिल्मों में दिखायी गयी सामाजिक-आर्थिक विषमताओं के संदर्भ में आम आदमी की कहानी को समाजवादी रुझान से देखने का. राज कपूर की फिल्मों में सामाजिक-आर्थिक विषमताओं के मद्देनजर आम आदमी की जिंदगी की त्रासदी को बड़ी खूबसूरती से नाटकीयता के साथ दर्शाया गया है, लेकिन यह किसी सामाजिक विमर्श के चित्रांकन की अपेक्षा सामाजिक-आर्थिक विषमताओं और अन्याय के प्रति उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति लगती है, जिसे उन्होंने अपनी कलात्मकता से उत्कृष्ठ श्रेणी की कलात्मक अभिव्यक्ति में तब्दील किया है.
राज कपूर की बड़ी बेटी रितु नंदा ने कही ये बात
बकौल रितु नंदा राज कपूर फिल्मों को बौद्धिकता का विषय नहीं मानते थे. राज कपूर की बड़ी बेटी रितु नंदा ने अपनी किताब ‘राज कपूर: द वन एंड ओनली शोमैन’ में लिखा है कि उनका मानना था कि जो दर्शक पैसा खर्च कर थियेटर में फिल्म देखने आता है, वह मनोरंजन के लिए आता है, ना कि सामाजिक या राजनीतिक उपदेशों को सुनने के लिए. हालांकि, उन्हें इस बात का भी अहसास था कि सिनेमा सामाजिक विषयों को उठाने का एक सशक्त माध्यम है. इसलिए उन्होंने अपनी फिल्मों को लेकर एक ऐसा नजरिया अपनाया, जिसके माध्यम से वे अपने दर्शकों का मनोरंजन करते हुए उन पर प्रभाव डालने में कामयाब हुए. आज से ठीक पचास साल पहले साल 1974 में बीबीसी को दिये एक इंटरव्यू में राज कपूर ने कहा था कि पहले यह समझना होगा कि हमारे देश के लिए फिल्म क्या है? अलग-अलग देशों के लिए फिल्म के मायने मुख्तलिफ हैं. हमारे देश में करोड़ों लोगों के लिए मनोरंजन का सस्ता जरिया है फिल्म. समानांतर सिनेमा के दिग्गज फिल्मकार सत्यजीत रे राज कपूर के बारे में बताते हैं कि राज कपूर स्वंय मानते थे कि उनकी फिल्में जन-मानस के लिए हैं ना कि हमारे जैसे लोगों के लिए.
रितु नंदा कहती हैं- उनकी फिल्में भावनात्मकता और मनोरंजन…
रितु नंदा अपनी किताब में लिखती हैं कि राज कपूर भारत के सबसे बड़े सांस्कृति राजदूत थे. उनकी फिल्में भावनात्मकता और मनोरंजन की विचारधारा थीं. आवारा, श्री 420, बरसात, बूट पॉलिश, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है, राम तेरी गंगा मैली, प्रेम रोग, सत्यं शिवं सुन्दरम, बॉबी राज कपूर की वो फिल्में हैं जिनके आधार पर उनकी फिल्मों का सामाजिक-आर्थिक बौद्धिक विमर्श तैयार किया जाता रहा है, लेकिन गौर से देखा जाये तो इन तमाम फिल्मों का केंद्रीय भाव प्रेम, करुणा और दया पर आधारित था. राज कपूर खुद अपने बारे में कहते हैं कि मैं एक लाइलाज रोमांटिक व्यक्ति हूं. मैं प्यार की धारणा से प्यार करता हूं. यह मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है. इसीलिए मैं गहन प्यार पर फिल्में बनाता हूं. वह कहते थे कि एक व्यक्ति के रूप में, मेरे लिए प्यार हमेशा एक अत्यधिक विशेष भावना रही है. मेरा मतलब उस प्यार से नहीं है, जो एक स्त्री और एक पुरुष के बीच होता है. यह एक दूसरे प्रकार का प्यार है, जो कुछ थोड़े से सौभाग्यशाली लोगों को जीवन में एक बार मिलता है, एक गौरवपूर्ण तरंग के जैसा. मैं समझता हूं कि प्यार रचनात्मकता में एक बड़ी जोड़ने वाली शक्ति है. आज मैं अपने चारों ओर देखता हूं और अपनी समकालीन फिल्में देखता हूं, जिनमें क्रोध, नफरत, हिंसा, प्रतिशोध और कड़वाहट की प्रबल भावनाएं हैं. मेरी फिल्मों ने हमेशा प्यार को ही विषय बनाया है और वह सब, जो इसके आस-पास रहता है. प्यार के उद्भव में ही क्रांति है.
रितु नंदा ने कहा- राज कपूर की फिल्मों में आजादी के बाद…
रितु नंदा कहती हैं कि राज कपूर की फिल्मों में आजादी के बाद एक सामूहिक अपमान के समाधान के लिए जो सुझाव दिये गये उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था, बल्कि एक प्यार था, जिससे उनका बहुत कुछ लेना-देना था. यह प्रवृत्ति जितनी उनके अति राजनीतिक सहयोगियों को निराश करने वाली थी, उतनी ही देश-विदेश में भारतीय सिनेमा को स्वीकार्यता प्रदान करने वाली थी. राज कपूर ने अपनी फिल्मों के किरदारों के बहाने इसी प्यार के भाव को विस्तार दिया है और उसे ईमानदारी, वफादारी, मासूमियत, भोलेपन और सरलता जैसे मानवीय गुणों के तौर पर रुपहले पर्दे पर उतारा है. इसलिए उनकी फिल्में किसी प्रेमी कवि की प्रेम में पगी हुई कविताओं की मानिंद है, जिसमें प्रेम के सारे आयाम खुशी, उदासी, हंसी, गम, विछोह, विरह सभी मौजूद हैं. राज कपूर प्यार को सबसे बड़ी ताकत मानते थे और वे इसी ताकत के भरोसे अपने किरदारों को तमाम संघर्षों के बावजूद अंत में एक विजेता के तौर पर दिखाते थे. उन्होंने अपनी फिल्मों में सच और ईमानदारी का दामन थामे संदेशवाहकों को कभी नहीं मारा. यह उनकी अपने किरदारों के प्रति एक न्यायिक दृष्टि थी, जो घोर आशावादिता के सहारे टिकी हुई थी.