II उर्मिला कोरी II
फिल्म: फुल्लू
निर्देशक: अभिषेक सक्सेना
निर्माता: रमन कपूर, अनमोल कपूर
कलाकार: शरीब हाशमी, ज्योति सेठी, नूतन सूर्या, इनामुल हक और अन्य
रेटिंग: ढाई
पिछले कुछ समय से हिंदी सिनेमा अलग अलग तरह की किरदारों और कहानियों को लेकर सामने आ रहा है. इस बार परदे पर सबसे अहम लेकिन समाज में बात भी करने पर वजिर्त करार दी गयी समस्या को सामने लाया गया है. निर्देशक अभिषेक सक्सेना की फिल्म ‘फुल्लू’ माहवारी और उससे जुड़े सैनेटरी पैड के मुद्दों पर आधारित हैं. जो हिंदी सिनेमा के दशकों पुराने इतिहास में अब तक अनछुआ रहा है. फिल्म की कहानी की बात करें तो यह फुल्लु (शरीब हाशमी) की कहानी है. जो नकारा है लेकिन गांव की सभी औरतों के लिए बहुत मददगार है सिवाए अपनी मां के. वह अपने गांव की औरतों के लिए जरुरी सामान उन्हें शहर से लाकर देता है.
ऐसे ही सामानों की खरीददारी करते हुए एक दिन उसे सेनेटरी पैड के बारे में मालूम होता है. पीरियड में होने वाली दिक्कतों के बारे में वह अपनी पत्नी से सुन चुका होता है. वहां डॉक्टर उसे बताती है कि सैनेटरी पैड हर औरत को इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि मामला सीधा उसके स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है. वह इसके बारे में गांव की शिक्षिका से बात करता है तो उसे मालूम पड़ता है कि सत्तर प्रतिशत महिलाएं इसके महंगे होने की वजह से इसका इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं और अपनी जान को जोखिम में डाल देती है, तब फुल्लू तय करता है कि वह अपनी गांव की औरतों के लिए ऐसे ही सेनेटरी पैड्स को बनाएगा. जो वह सभी को सस्ते दामों में देगा लेकिन यह सफर इतना आसान नहीं होता है.
जिस समाज में पीरियड़ को एक बीमारी बताया जाता है. ऐसी बीमार मानसिकता वाले लोगों को जागरुक बनाना सहज नहीं है. इसी पर आगे की कहानी है. फिल्म का विषय बहुत ही सशक्त है लेकिन कहानी में उस ढंग से पिरोने में लेखक और निर्देशक चूक गए हैं. फिल्म के शुरुआती के एक घंटे फुल्लु कितना बड़ा लूजर है. इसे स्थापित करने में ही बर्बाद हो गए हैं जबकि फिल्म की कहानी का मूल मकसद सेनेटरी पैड को लेकर जागरुकता फैलाना था. किस तरह से सेनेटरी पैड का इस्तेमाल कर महिलाएं न सिर्फ पीरियड के इंफेक्शन बल्कि खुद को जानलेवा बीमारी से भी बचा सकती हैं.
फिल्म का अंत देखकर लगता है कि अभी भी फिल्म पूरी नहीं हुई है. हमें फिल्म में यह देखना था कि किस तरह से फुल्लु का किरदार गांव की महिलाओं को पैड का इस्तेमाल करने के लिए राजी करता है लेकिन अचानक से फिल्म खत्म हो जाती है. फिल्म की गति धीमी है. फिल्म के अच्छे पहलुओं की बात करें तो फुल्लु के किरदार का इनामुलहक से बातचीत वाला प्रसंग अच्छा बन पड़ा है. किस तरह से पीरियड को लेकर हमारे समाज में बहुत ही अजीबोगरीब सोच और मान्यताएं है. कुछ मिनटों की बातचीत में इसे बखूबी सामने लाया गया है.
यह कहना गलत न होगा कि जिस बात को दो घंटे की कहानी को कहना था उस बात को इनामुल हक के किरदार ने 1क् मिनट में बखूबी कह दिया है. हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई जाहिल सारे भाई-भाई. समाज के दोहरी सोच पर इस सीन के जरिए बखूबी सवाल उठाया गया है. फिल्म की सिनेमाटोग्राफी अच्छी है. कैमरा वर्क में रियालिस्टिक सिनेमा की छाप नजर दिखती है. संवाद और गीत संगीत में भी उत्तर भारत के देशीपन की खूशबू को बखूबी मिलाया गया है. जो फिल्म को खास बनाता है.
इस फिल्म के विषय के साथ कलाकारों का खरा अभिनय इस फिल्म की खासियत हैं. फुल्लू के किरदार में शरीब हाशमी का अभिनय शानदार है. पूरी फिल्म को उन्होंने बखूबी अपने कंधो पर उठाया है. जो उनके एक अच्छे अभिनेता होने का परिचायक है. फुल्लु की मां के तौर पर नूतन सूर्या का अभिनय खास है. वह पीड़ित और गुस्सैल मां के इन अलग अलग शेड्स को अपने अभिनय के जरिए फिल्म में बखूबी जीती है. जब भी वह परदे पर नजर आती रोचकता बढ़ जाती थी. यह कहना गलत न होगा. इनामुलहक चंद दृश्यों में हैं लेकिन वह फिल्म खत्म हो जाने के बाद भी याद रह जाते हैं. ज्योति सेठी और बाकी के किरदारों का अभिनय भी सहज है.
कुलमिलाकर यह फिल्म अपने विषय और कलाकारों के ईमानदार परफॉर्मेस की वजह से खास है. अगर कहानी पर काम किया जाता तो यह बेहतरीन फिल्म साबित हो सकती थी.