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FILM REVIEW: फिल्‍म देखने से पहले, पढ़ें कैसी है फिल्‍म ”लिपस्टिक अंडर माय बुर्का”

II उर्मिला कोरी II फ़िल्म: लिपस्टिक अंडर माय बुर्कानिर्माता: बालाजी टेलीफिल्म्स और प्रकाश झानिर्देशक: अलंकृता श्रीवास्तवकलाकार: कोंकणा सेनशर्मा,रत्ना पाठक शाह, आहना कुमरा, प्लाबिता, विक्रांत मेस्सी, सुशांत सिंह, शशांक अरोरा और अन्यरेटिंग: तीन ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ इस साल की सबसे विवादित फिल्मों में से रही है खासकर फ़िल्म को लेकर सेंसर बोर्ड के रैवैये ने […]

II उर्मिला कोरी II

फ़िल्म: लिपस्टिक अंडर माय बुर्का
निर्माता: बालाजी टेलीफिल्म्स और प्रकाश झा
निर्देशक: अलंकृता श्रीवास्तव
कलाकार: कोंकणा सेनशर्मा,रत्ना पाठक शाह, आहना कुमरा, प्लाबिता, विक्रांत मेस्सी, सुशांत सिंह, शशांक अरोरा और अन्य
रेटिंग: तीन

‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ इस साल की सबसे विवादित फिल्मों में से रही है खासकर फ़िल्म को लेकर सेंसर बोर्ड के रैवैये ने फेस्टिवल्स में सराही जाने वाली इस फ़िल्म को सभी से जोड़ दिया. हर कोई यह बात जानना चाहता है कि आखिर इस फ़िल्म में ऐसा क्या था जिसने सेंसर को इतना परेशान कर दिया था कि इस पर प्रतिबंध लगाने की बात हो रही थी. आज जब फ़िल्म रिलीज हुई है तो यह बात सामने आई है कि वाकई यह फ़िल्म समाज को इस कदर आईना दिखाती है कि यह कइयों को असहज कर सकती है.

यहां बुर्का का मतलब सिर्फ मुस्लिम औरतों के चेहरे और शरीर को ढकने का हिजाब भर नहीं है बल्कि इस फ़िल्म में बुर्खे का मतलब पितृसत्ता वाले नैतिक ठेकेदारों द्वारा औरतों के सपनें, इच्छाएं और आज़ादी को खत्म करना दर्शाया गया है. भारत में दो भारत बसते हैं. यह हम सभी जानते हैं यह दूसरे भारत की कहानी है. जहां पुरुषों की मानसिकता ऐसी है जो औरतों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते हैं. उनके कुछ अधिकार होते हैं. वह यह मानना नहीं चाहते हैं.

फ़िल्म में एक संवाद भी है बीवी हो बीवी की तरह रहो शौहर बनने की कोशिश मत करो. मतलब यह है कि महिलाएं अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जी नहीं सकती है. उसका फ़ैसला घर के पुरुष लेंगे फिर चाहे वह 22 की लड़की हो या 55 साल की औरत. अच्छी बात यह है कि फ़िल्म में हिन्दू और मुस्लिम दोनों औरतों की कहानियों को बराबर अनुपात में दिखाया गया है.

यह फ़िल्म भोपाल में रहने वाली चार अलग अलग उम्र की औरतों की कहानी हैं परिस्थितियां भी अलग अलग है लेकिन उनके सपने एक जैसे है. वह सभी अपनी अपनी ज़िंदगी की घुटन से आज़ादी चाहती है. अपने सपनों को जीना चाहती हैं जो शारीरिक जरूरतों से लेकर आत्मनिर्भरता सहित कई अलग अलग मुद्दों को छूते हैं. लिपस्टिक वाले सपने वह देखना चाहती हैं. नॉवेल के किरदार रोजी की फैंटेसी को बहुत ही बारीकी के साथ चारों किरदारों में पिरोया गया है.

फ़िल्म का फर्स्ट हाफ दूसरे की तुलना में ज़्यादा प्रभावी है. बतौर निर्देशक अलंकृता की तारीफ करनी होगी वह चार कहानियों को फ़िल्म में बहुत खूबसूरती के साथ सामने लाती हैं. फ़िल्म का अंत भी अच्छा है. अलंकृता कुछ सवालों के जवाब दर्शकों पर भी छोड़ देती है. लिपस्टिक वाले सपने नॉवेल के आख़िरी दो पन्ने बहुत कुछ अंत के बारे में कह जाते हैं. कुछ खामियां भी हैं जब कोंकोणा का किरदार अपने शौहर की प्रेमिका से सवाल करती है अगर वह यह सवाल अपने शौहर से करती तो ज़्यादा अच्छा होता था.

इस फ़िल्म का अभिनय इसकी सबसे बड़ी यूएसपी है. रत्ना पाठक शाह के अभिनय की जितनी तारीफ की जाए वह कम होगी. उनका अभिनय गुदगुदाता है तो कई बार उनकी घुटन से आपको जोड़ भी जाता है. हमेशा की तरह एक बार फिर कोंकोणा सेन शर्मा का अभिनय लाजवाब रहा वह दोहरी ज़िंदगी जी रही महिला के किरदार को बखूबी अपने अभिनय से सामने लाती हैं. अहाना और प्लाबिता का सशक्त अभिनय कहानी को और प्रभावी बना जाता है. फ़िल्म के सपोर्टिंग कास्ट भी काबिलेतारीफ है. विक्रांत मेस्सी अरशद के किरदार में याद रह जाते हैं. वह मंझे हुए अभिनेता है वह छोटे रोल में भी इसका सबूत दे जाते हैं. वैभव ततवादी, सुशांत सिंह सहित दूसरे किरदार भी अपनी अपनी भूमिकाओं में न्याय करते हैं. फ़िल्म के संवाद ध्यान खिंचते हैं.

फ़िल्म की सिनेमाटोग्रफी की तारीफ करनी होगी कहानी की तरह ही भोपाल के लुक को भी फ़िल्म में रियलिस्टिक रखा गया है. फ़िल्म का गीत संगीत कहानी के अनुरूप है हां बैकग्राउंड स्कोर ज़रूर अच्छा बन पड़ा है. कुलमिलाकर फ़िल्म के किरदार और उनसे जुड़े हालात रियलिस्टिक हैं. इस फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हकीकत नहीं है बल्कि यह कहना गलत न होगा कि यह हमारे समाज की सच्चाई है. सच वैसे भी कड़वा होता है. खासकर अगर आप पितृसत्ता समाज में रह रही महिलाओं को देखने के आदि हैं तो इस फ़िल्म में ऐसा बहुत कुछ है जो आपको असहज कर सकता है.

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