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मर्दों की दुनिया में औरत मन का विद्रोह है ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’

।। गौरव ।। पुरुषवादी सोच वाली दुनिया में औरतों के जीने के लिए एक तय मापदंड है. जिस मापदंड में औरतों के सपनों, ख्वाहिशों और इच्छाओं का स्थान पुरुष ही तय करता है. और जब-जब इन सपनों, ख्वाहिशों और इच्छाओं की उड़ान उस मापदंड से बाहर जाने की कोशिश करती है, पुरुषवादी अभिमान के हाथों […]

।। गौरव ।।

पुरुषवादी सोच वाली दुनिया में औरतों के जीने के लिए एक तय मापदंड है. जिस मापदंड में औरतों के सपनों, ख्वाहिशों और इच्छाओं का स्थान पुरुष ही तय करता है. और जब-जब इन सपनों, ख्वाहिशों और इच्छाओं की उड़ान उस मापदंड से बाहर जाने की कोशिश करती है, पुरुषवादी अभिमान के हाथों उनके पर कतर दिये जाते हैं.

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का उन्हीं सपने और इच्छाओं के उड़ने और पर कतरने की कहानी है. खुशी की बात यह है कि हिंदी सिनेमा अब ऐसी अपारंपरिक कहानियां गढ़ने की हिम्मत दिखाने लगा है. है तो ये भले ही चार महिलाओं की कहानी, पर गौर से देखें तो आज हर ओर भीड़ में कई ऐसी महिलाएं दिखेंगी जो पुरुषों की जिंदगी सींचते-सींचते कब खुद ठूंठ बन जाती हैं, उन्हें पता नहीं चलता. फिल्म दैहिक और मानसिक स्तर पर विद्रोह करती उन्हीं महिलाओं द्वारा अपने सूखेपन को सींच खुद को हरा-भरा करने की कोशिशों की कहानी है. निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव ने बड़ी ही खूबसूरती से इन महिलाओं के जरिये भीड़ में गुम उन सारे चेहरों को झिझक और बेड़ियों सरीखी वर्जनाएं तोड़कर खुशियां चुनने की एक राह दिखा दी है.

कहानी की शुरुआत भोपाल में बुआजी उर्फ ऊषा जी (रत्ना पाठक शाह) के खंडहरनुमा हो चुके घर हवाई महल से होती है. जहां शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा), लीला (अहाना कुमार) और रिहाना (प्लाभिता) अपनी फैमिली के साथ किराये पर रहती हैं. हरेक के अपने सपने अपनी इच्छाएं हैं. 55 की उम्र में बुआजी की अपनी फैंटेसी भरी दुनिया है. धार्मिक किताबों की आड़ में सेक्स फैंटेसी वाली किताबें पढ़ती हैं और अपनी काल्पनिक इच्छाओं वाले सागर में डूबकी लगाती रहती हैं.

#LipstickUnderMyBurkha : जिद अपनी शर्तों पर जीने की

इस उम्र में दैहिक इच्छा की सोच भी पाप है, ऐसी धारणा वाले घर में वो बाथरूम के बंद दरवाजे के पीछे अपनी आजादी तलाशती है. शिरीन अपने पति के लिए बस सेक्स और बच्चे पैदा करने की मशीन सरीखी है. वह अपने पति को बिना बताये सेल्स गर्ल का काम करती है. लीला अपनी मर्जी के खिलाफ हो रही शादी से इतर अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ दिल्ली भाग जाने का ख्वाब देख रही है. अपनी सगाई की रात उसे ब्वॉयफ्रेंड के साथ छिपकर सेक्स करने से भी गुरेज नहीं है. और रिहाना की अपनी दुनिया है, जो बुर्के और जींस के बीच अटकी पड़ी है. माइली साइरस जैसी सिंगर बनने के ख्वाब के साथ वह हर रोज घर से बुर्के में निकलती है और कॉलेज के वाॅशरूम में बुर्का उतार, जींस चढ़ा लेती है. इन सबकी जिंदगी में कोई न कोई मर्द है, जिसका दंभ हर वक्त इनकी इच्छाओं पर गिद्ध सा नजरें गड़ाये रहता है.

फिल्म की सोच अनूठी है, पर किरदारों की परिपक्व सोच को आवश्यक विस्तार नहीं मिल सका है. बात चाहे जींस के सपने देखने वाली रिहाना का मॉल से अपने सपनों की खातिर चोरी करने की हो, या लीला के अपनी मर्जी से शादी की बात पर बार-बार सेक्स के लिए उतावलेपन की. किरदारों की यह अपरिपक्व सोच विषय पर निर्देशक के आवेशात्मक रवैये को भी दर्शाती लगती है. शारीरिक संबंधों के अतिरेक वाले कई दृश्यों के बार-बार दुहराव से बचने के लिए संकेतात्मक प्रयोग भी फिल्म को ठोस जमीन दे सकते थे.

बहरहाल, अलंकृता की यह फिल्म बौद्धिक स्तर पर कईयों को नागवार गुजरेगी. पर अगर आप अपने आस-पास निगाहें दौड़ायेंगे, तो असल समाज में स्थिति इससे कहीं ज्यादा भयावह पायेंगे. अलंकृता की इस यात्रा को उनकी अभिनेत्रियों का भरपूर साथ मिला है. रत्ना पाठक शाह ने कहानी की जरूरत के लिहाज से खुद को आवश्यक विस्तार दे दिया है. उनकी तोड़ी लकीरों ने निर्देशक का काम निश्चित ही आसान कर दिया होगा. कोंकणा सेन शर्मा के भाव संप्रेषण और अहाना व प्लाभिता बोरठाकुर की उन्मुक्तता भी कहानी को खुलकर खिलने का मौका देती है. पर आखिर में यह बात बतानी जरूरी हो जाती है कि फिल्म केवल व्यस्कों के लिए है, सो थिएटर के रुख में परिपक्वता जरूरी है.

क्यों देखें – वर्षों से चले आ रहे ट्रेडिशनल माइंडसेट बदलने के लिए ऐसी कहानियां निहायत जरूरी हैं.
क्यों न देखें- बेशक फिल्म नाबालिगों के लिए नहीं है.

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