-उर्मिला कोरी-
फिल्म – इंदु सरकार
निर्माता -मधुर भंडारकर, भरत शाह
निर्देशक – मधुर भंडारकर
कलाकार – कीर्तिकुल्हारी , तोता रॉय चौधरी, नील नितिन मुकेश, अनुपम खेर, सुप्रिया विनोद
रेटिंग – तीन
नेशनल अवार्ड विनिंग डायरेक्टर मधुर भंडारकर की फिल्म ‘इंदु सरकार’ पर पिछले काफी समय से हो हल्ला मचा हुआ था. आखिरकार इस फिल्म ने सिनेमाघरों में दस्तक दे दी है. फिल्म की शुरुआत भले ही डिस्क्लेमर से होती है कि यह फिल्म काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है, लेकिन हकीकत में यह फिल्म देश के काले अध्याय इमरजेंसी की बात करती है. फिल्म में1975 से 1977 के उस अध्याय का जिक्र किया गया है. जो लोकतंत्र पर धब्बे के रूप में याद किया जाता है.
फिल्म की कहानी मुबीपुरा गांव में पुलिस के पहुंचने से शुरू होती है. पुलिस वहां से सभी पुरुष निवासियों को हिरासत में लेते हैं, फिर घोषणा करते हैं नसबंदी का साथ दो. जिसके बाद लोग भागने लगते हैं. सब खुद को अलग -अलग जगह छिपाने की कोशिश करते हैं. लोग विरोध करते हैं जिसके बाद पुलिस लाठी चार्ज करती है. मेरी नासबंदी क्यों कर रहे हो? एक 70 वर्षीय बूढ़ा पूछता है तो 13 वर्षीय लड़का भी. यह दृश्य फिल्म की शुरुआत को पर्दे पर बहुत सशक्त तरीके से सामने लाती है, उसके बाद कहानी अनाथ इंदु सरकार पर चली जाती है.
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जो कवयित्री बनना चाहती है लेकिन इंदु (कीर्ति कुल्हाड़ी) की शादी सरकारी अफसर नवीन सरकार (तोता रॉय चौधरी) के साथ हो जाती है. इमरजेंसी में सरकार का रवैया इंदु को अच्छा नहीं लगता. दूसरी तरफ इंदु के पति अपने फायदे के लिए सरकार का साथ देने लगते हैं , इस वजह से इंदु और नवीन में अलगाव हो जाता है. इंदु सरकार की योजनाओं का विरोध करने लगती है और सरकार के खिलाफ मोर्चा शुरू कर देती है. कहानी में कई मोड़ आते हैं, फिल्म का रिसर्च वर्क अच्छा है.
इमरजेंसी के दौरान नसबंदी और मीडियाबंदी के साथ- साथ बाकी कई तरह के मुद्दों पर प्रकाश डालने की कोशिश की गयी है. संजय गांधी के लिए गाने से इनकार करने के बाद रेडियो और टेलीविजन से किशोर कुमार पर अनौपचारिक प्रतिबंध का भी फिल्म में उल्लेख किया गया है. फिल्म में इंदिरा गांधी के किरदार को मम्मीजी के तौर पर और संजय गांधी को चीफ के तौर पर दिखाया गया है. फिल्म में इंदिरा गांधी और संजय गांधी पर फोकस न कर इमरजेंसी के दौरान जो राजनीतिक कदम उठाये गए हैं उस पर है. राजनीतिक विरोधियों को कैद में डालने की घटना का भी जिक्र है.. फिल्म में इसका भी जिक्र है कि लोगों का भरोसा जीतने के लिए जब संजय गांधी इमरजेंसी खत्म कर चुनाव करवाते हैं लेकिन वह मुंह की खाते हैं. कहानी को थोड़ा और निखारने की ज़रूरत थी खासकर इंदु सरकार की शादीशुदा ज़िंदगी के बजाय इमरजेंसी के किस्सों और जोड़ने की जरुरत महसूस होती है.
इंटरवल तक फिल्म की गति धीमी ज़रूर है लेकिन उसके बाद फिल्म गति पकड़ती है और वह अंत तक बांधे रखती है. फिल्म की एडिटिंग भी और बेहतर की जा सकती थी. अभिनय की बात करें तो फिल्म पिंक में अपने प्रभावी अभिनय के लिए तारीफें बटोर चुकी कीर्ति ने एक बार फिर अपने सशक्त अभिनय से किरदार को जीया है. अभिनेता तोता रॉय चौधरी भी बहुत प्रभावी रही है. नील नितिन मुकेश, अनुपम खेर, सुप्रिया विनोद का काम उम्दा रहा है. फिल्म का कैमरा वर्क और संवाद कमाल के हैं खासकर फिल्म के संवाद कहानी को सशक्त बनाने में कामयाब रहे हैं. कब तक मां- बेटे की गुलामी करते रहोगे. फिल्म का गीत संगीत अच्छा है. कुलमिलाकर काफी समय बाद मधुर भंडारकर बतौर निर्देशक प्रभावित करने में कामयाब रहे हैं.