IIउर्मिला कोरीII
फ़िल्म: लखनऊ सेंट्रल
निर्देशक: रंजीत तिवारी
कलाकार: फरहान अख्तर, दीपक डोबरियाल, डायना पेंटी, राजेश शर्मा, गिप्पी ग्रेवाल, इनामुल हक और अन्य
रेटिंग: ढाई
परिस्थितियां कैसी भी हो सपने देखने और उन्हें पूरा करने का जज्बा कभी खत्म नहीं होना चाहिए. असल घटनाओं से प्रेरित नवोदित निर्देशक रंजीत तिवारी की फ़िल्म लखनऊ सेंट्रल की मूल कहानी यही है. यह कहानी किशन गिरहोत्रा (फरहान अख्तर) की है. जिसका सपना सिंगर बनना है अपना बैंड बनाना है लेकिन उस पर आईएएस अधिकारी की हत्या का झूठा आरोप लग जाता है और वह जेल पहुँच जाता है. जो गलती उसने की ही नहीं उसकी सजा उसे मिलती है. इसी बीच जेल में कैदियों के बैंड की प्रतियोगिता शुरू होती है.
किशन भी बैंड बनाने में जुट जाता है लेकिन संगीत से जुड़े अपने सपने को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि उसका प्लान कुछ और है. वह जेल से भागना चाहता है. क्या वह भाग पाएगा. उसे आज़ादी चाहिए या अपने सपने. इसी द्वंद की कहानी लखनऊ सेंट्रल है. फ़िल्म में कैदी उनकी ज़िंदगी को सामने लाया गया है हालांकि फ़िल्म की कहानी में जेल की ज़िंदगी की भयावहता को पूरी तरह से सामने लाने में चूकती है.
फ़िल्म की कहानी कुछ हफ्ते पहले रिलीज हुई ‘कैदी बैंड’ की तरह ही है लेकिन फ़िल्म का ट्रीटमेंट और मंझे हुए अभिनेताओं का साथ इस फ़िल्म को उस फिल्म के मुकाबले कई गुना बेहतर बना देता है. इंटरवल तक फ़िल्म आपको बांधे रखती है लेकिन सेकंड हाफ में इसे ज़बरदस्ती खींचा गया है और क्लाइमेक्स अति नाटकीयता से भरा है. जो इस फ़िल्म को कमज़ोर कर जाता है. इस पर काम किया गया होता तो यह एक बेहतरीन फ़िल्म बन सकती थी.
हां फ़िल्म के कुछ दृश्य प्रभावी ज़रूर बने हैं जब चारों कैदी पेरोल पर बाहर निकलते हैं तो वह पाते हैं कि वह दुनिया और उसके अपने उसे अपनाने को तैयार नहीं हैं. फरहान के किरदार का यह संवाद कि किसी ने उससे नहीं पूछा कि उस रात क्या हुआ था. सभी उसे बता रहे कि क्या हुआ था कहीं न कहीं कमज़ोर कानून और न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाती है.
इस फ़िल्म का अभिनय की इसकी सबसे बड़ी यूएसपी है. उत्तरप्रदेश के युवा के किरदार में फरहान अख्तर ने प्रभावी काम किया है. संवाद बोलने के अंदाज़ को भी उन्होंने आत्मसात किया है. दीपक डोब्रियाल इस बार अपने चित परिचित अंदाज़ से अलग दिखते हैं. रोनित रॉय अपने किरदार में सटीक बैठे हैं. धूर्त और चालाक जेलर की भूमिका में वह प्रभावित करते हैं.
रवि किशन की भी तारीफ करनी होगी. वह जब भी परदे पर आए हैं. चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. डायना पेंटी, राजेश शर्मा, इनामुल हक और गिप्पी ग्रेवाल सभी अपनी अपनी भूमिकाओं में खरे उतरे हैं.
यह एक म्यूजिकल फ़िल्म है लेकिन फ़िल्म का गीत संगीत प्रभावित करने से चूकता है. फ़िल्म के संवाद कहानी के अनुरूप हैं.
फ़िल्म की सिनेमाटोग्रफी और आर्टवर्क अच्छा है. कुलमिलाकर कहानी की खामियां बेहतरीन फ़िल्म की संभावनाओं वाली इस फ़िल्म को एक औसत फ़िल्म बना देती है.