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कमजोरियों के बावजूद एंटरटेन करती है तुम्हारी सुलु

।। गौरव ।। पिछले एकाध सालों में हिंदी सिनेमा की कहानियों बड़ी बारिकी से मध्यवर्गीय परिवारों की रोजमर्रा की जिंदगी में प्रवेश करने लगी हैं. नये-नये लेखकों-निर्देशकों के आने से यह पड़ताल और तेज हो गयी है. रोजमर्रा की समस्याओं से जुझती आम जिंद गियों की कहानी अब फिल्मकारों के साथ-साथ दर्शकों द्वारा भी स्वीकार […]

।। गौरव ।।
पिछले एकाध सालों में हिंदी सिनेमा की कहानियों बड़ी बारिकी से मध्यवर्गीय परिवारों की रोजमर्रा की जिंदगी में प्रवेश करने लगी हैं. नये-नये लेखकों-निर्देशकों के आने से यह पड़ताल और तेज हो गयी है. रोजमर्रा की समस्याओं से जुझती आम जिंद गियों की कहानी अब फिल्मकारों के साथ-साथ दर्शकों द्वारा भी स्वीकार की जाने लगी हैं.
नवोदित निर्देशक सुरेश त्रिवेणी की तुम्हारी सुलु ऐसे ही एक वर्किग कपल्स के प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ की से उपजी फिल्म है. शार्ट फिल्म के जरिये बड़े परदे का रुख करने वाले सुरेश ने कहानी का एक बेहतर प्लॉट चुना है, उस प्लॉट पर महल खड़ा करते वक्त कहीं-कहीं अनुभवहीनता का शिकार हो गये हैं. लेकिन पहले प्रयास के तौर पर उनकी संभावनाओं को सिरे से नकारा भी नहीं जा सकता.
सुलोचना उर्फ सुलु(विद्या बालन) मध्यवर्गीय परिवार की एक अतिमहत्वकांक्षी घरेलू महिला है. पति अशोक (मानव कौल) आम नौकरी पेशा इंसान है. सुलु का अस्तित्व भले एक घर में सिमटा हो पर उसके ख्वाब काफी बड़े हैं. इन्हीं ख्वाबों की खातिर वो छोटी-छोटी खुशियां पकड़ने से भी बाज नहीं आती.
बेटे प्रणव के स्कूल में हो रहे कंपीटीशंस जीतने में भी उसे अपने ख्वाब का कुछ हिस्सा पूरा होता नजर आता है. पर घर के हालात ऐसे हैं कि उसे इन्हीं छोटी-छोटी खुशियों से संतोष करना पड़ता है. ऐसे में सुलु को अचानक अपने ख्वाब पूरे करने का एक मौका मिलता है और वो उसे झटके से लपक लेती है. होता यूं है एक कंपीटीशन जीतने पर सुलु प्राइज लेने रेडियो स्टेशन पहुंचती है. वहां आर जे (रेडियो जॉकी) का ऑडिशन चल रहा होता है.
सुलु भी इंटरव्यू देती है जिसमें उसका चयन हो जाता है. सुलु को रेडियो पर लेट नाइट प्रोगाम ‘तुम्हारी सुलु’ करने को मिलता है. कम समय में ही सुलु का ये प्रोग्राम श्रोताओं के बीच हिट हो जाता है और सुलु एक सेलिब्रिटी बन जाती है. यहां से शुरू होती है सुलु की प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ के बीच टकराहट. पति दिन भर काम कर जब घर वापस आता है तब सुलु को प्रोग्राम के लिए रेडियो जाना होता है. बढ़ती जिम्मेदारियां अपने साथ काफी उथल-पुथल लाती हैं.
फिल्म मध्यवर्गीय परिवार के कई संवेदनशील मुद्दों को बारिकी से बयां करती है. कहानी का पहला हाफ हल्के-फुल्के माहौल में काफी इंटरटेनिंग बन पड़ा है. सेकेंड हाफ में कहानी ड्रामेटिक होने की वजह से कहीं-कहीं पटरी से उतरती लगती है. पर इन छोटी-मोटी कमजोरियों को अपने काबिले तारीफ अभिनय से विद्या और मानव कौल ने पूरी तरह पाट दिया है. एक कामकाजी और घरेलू महिला के दोनों किरदारों की जरूरतों को विद्या ने बड़े ही सहज तरीके से आत्मसात किया है. सुलोचना की उन्मुक्तता और उसके जीवन में उपजे द्वंद्व दोनों परिस्थितियों में उनके चेहरे का भावसंप्रेषण देखने योग्य है.
पिछले एक-दो साल से परदे पर काफी सक्रिय रहे मानव कौल ने पति की भुमिका में एक बार फिर साबित कर दिया कि भुमिका चाहे निगेटिव हो या पॉजिटिव वो हर रोल के लिए फिट हैं. हिंदी सिनेमा को उन जैसी प्रतिभा के और अधिक इस्तेमाल की जरूरत है. सहयोगी भुमिकाओं में नेहा धुपिया और विजय मौर्या सराहनीय हैं. फिल्म के गाने ‘बन जा तू मेरी रानी’ और ‘हवा हवाई’ जैसे गाने तो पहले ही चार्ट बस्टर पर हैं.
क्यों देखें- स्टोरी नेक्स्ट डोर टाइप हल्की-फुल्की मनोरंजक फिल्म देखना चाहते हों जरूर देखें.
क्यों न देखें- किसी महान या उम्दा फिल्म की अपेक्षा हो तो निराशा हाथ लग सकती है.

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