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FILM REVIEW: दिल को छू जाती है ये ”कड़वी हवा”

II उर्मिला कोरी II फिल्म – कड़वी हवा निर्देशक – नील माधब पांडा कलाकार – संजय मिश्रा ,रणवीर शौरी,तिलोत्तमा शोम और अन्य रेटिंग – साढ़े तीन महान फिल्मकार वी शांताराम ने कहा था कि सिनेमा का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं है. सिनेमा का सामाजिक उद्देश्य भी है. आम लोगों की जिंदगी के बारे में उनकी […]

II उर्मिला कोरी II

फिल्म – कड़वी हवा
निर्देशक – नील माधब पांडा
कलाकार – संजय मिश्रा ,रणवीर शौरी,तिलोत्तमा शोम और अन्य
रेटिंग – साढ़े तीन

महान फिल्मकार वी शांताराम ने कहा था कि सिनेमा का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं है. सिनेमा का सामाजिक उद्देश्य भी है. आम लोगों की जिंदगी के बारे में उनकी परिस्थिति को लोगों तक पहुंचाने का सार्थक प्रयास सिनेमा ही कर सकता है. वी शांताराम के इस कथन पर नील माधब पांडा की फिल्म कड़वी हवा पूरी तरह से सार्थक साबित हो सकती है.

फिल्म की कहानी जलवायु में आ रहे बदलाव के अहम लेकिन उपेक्षित मुद्दे के इर्द-गिर्द बुनी गई है. ग्लोबल वार्मिंग के बारे में हम अक्सर सुनते हैं और दुःख भी जता लेते हैं लेकिन मौसम से इस बदलाव की मार कई अलग-अलग राज्यों में रह रहे लोगों की ज़िन्दगी तबाह कर रहा हैं. कोई राज्य सूखे से ग्रस्त है तो कहीं बाढ़ आ रही है. कहानी ऐसे ही दो अलग-अलग राज्यों से जुड़े इंसान की है.

फिल्म का बैकड्रॉप राजस्थान का एक गांव है. गांव में सूखा पड़ा है. देऊ (संजय मिश्रा) एक बुड्ढा किसान है. देऊ का बेटा फसल उगाने के लिए बैंक से बहुत लोन ले चुका है लेकिन बरसात ना होने की वजह से वह कर्जा चुका नहीं पा रहा है. देऊ इससे बहुत परेशान है. हर समय यहीं चिंता रहती है कि कहीं उसका बेटा भी दूसरे किसानों की तरह आत्महत्या ना कर लें. गांव में बैंक का एक एजेंट है. जिसे गांव के लोग यमदूत कहते हैं.

वह जब भी गांव में आता है उसके बाद कई किसान आत्महत्या कर लेते हैं. देऊ को भी डर है. वैसे यमदूत खलनायक नहीं है उसकी अपनी परेशानी है. वह मूल रूप से उड़ीसा के तटीय इलाके से हैं. जहाँ बाढ़ बहुत बड़ी समस्या है वह बाढ़ में अपने पिता और घर को खो चुका है. वह चाहता है कि अबकी बार बाढ़ आने से पहले वह अपने बचे परिवार को अपने पास बुला ले.

देऊ और यमदूत मिलकर एक डील करते हैं. वो डील क्या है और क्या उनकी ज़िन्दगी में उससे कुछ बदलाव आएगा या फिर मौसम में आये बदलाव की कड़वी हवा उन्हें भी निगल लेगी इसी के इर्द गिर्द फिल्म की कहानी है.

इस फिल्म की खास बात यह है कि फिल्म न सिर्फ गंभीर मुद्दे को उठाती है बल्कि फिल्म का पूरा ट्रीटमेंट भी गंभीर है. फिल्म में मनोरंजन करने के लिए ज़बरदस्ती नाच गाना या कुछ भी जबरदस्ती नहीं परोसा नहीं है. फिल्म का ट्रीटमेंट बहुत रीयलिस्टिक है जिस वजह से यह फिल्म आपको सोचने के लिए मजबूर कर जाती है कि पर्यावरण को बचाना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है. फ़िल्म के आखिर में आनेवाले आंकड़े भयाहवता को बखूबी सामने लाते हैं.

फिल्म मात्र 100 मिनट की है जो इसका एक और बेहतरीन पहलू है .फ़िल्म का स्क्रीनप्ले जितना अच्छा है उतना ही उम्दा निर्देशन भी है.
अभिनय की बात करें तो संजय मिश्रा ने अवार्ड विनिंग परफॉरमेंस दिया है. फिल्म के विषय की तरह उनका अभिनय भी भीतर तक झकझोर जाता है. रणवीर शौरी भी बेहतरीन रहे हैं. तिलोत्तमा का काम अच्छा है. भूपेश सिंह के खाते में ज़्यादा सीन नहीं आए हैं. फ़िल्म के दूसरे

पहलुओं की बात करें तो फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है जो हकीकत को बखूबी सामने ले आते हैं. फिल्म के लोकेशन रियल हैं. फिल्म के संवाद कहानी को और प्रभावी बना जाते हैं. फ़िल्म में एक ही गाना है. उस एक गीत के साथ साथ बैकग्राउंड संगीत भी कहानी के अनुरूप बन पड़ा है.
आखिर में अगर आप खुद को इंटरटेन करने के लिए फ़िल्म देखना चाहते हैं तो यह फ़िल्म आपके लिए नहीं है लेकिन बदलते पर्यावरण ने हमारे आसपास की ज़िंदगी को कितना बेबस बना दिया है यह आप जानना चाहते हैं तो यह फ़िल्म आप देख सकते है. वैसे पर्यावरण का मुद्दा हम सभी की ज़िंदगी को प्रभावित करने की कूवत रखता है इसलिए यह फ़िल्म सभी को देखनी चाहिए.

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