II उर्मिला कोरी II
फ़िल्म- मुक्काबाज़
निर्माता- आनंद एल राय,अनुराग कश्यप,इरोज
निर्देशक -अनुराग कश्यप
कलाकार-विनीत कुमार,जोया हुसैन,जिमी शेरगिल,रवि किशन और अन्य
रेटिंग- तीन
पिछले कुछ समय से खिलाड़ियों और खेल की फिल्में रुपहले परदे की कहानियों की धुरी बन रहे हैं. अनुराग कश्यप की फ़िल्म ‘मुक्काबाज़’ बॉक्सिंग के खेल पर आधारित है लेकिन मुक्केबाज़ी के अलावा इस फ़िल्म की कहानी में प्रेम,जातिवाद और गुंडाराज भी शामिल है. फ़िल्म बताती हैं कि ये सभी पहलू छोटे शहर में एक उभरते युवा खिलाड़ी के संघर्ष को और बढ़ा देते हैं. उसे सिर्फ प्रतिद्वंदी से नहीं बल्कि पूरे सिस्टम से लड़ना पड़ता है. जो उसे मुक्केबाज़ के बजाय मुक्काबाज़ बनने को मजबूर करता है.
फ़िल्म की कहानी की बात करें तो उत्तरप्रदेश के बरेली के श्रवण (विनीत कुमार) की है. उसका पैशन बॉक्सिंग है. वह दबंग और बॉक्सिंग फेडरेशन में रसूख रखने वाले भगवान मिश्रा (जिमी शेरगिल) के यहां मुक्केबाज़ी की ट्रेनिंग के लिए पहुँचता है लेकिन वहां बॉक्सिंग की ट्रेनिंग के बजाय श्रवण को भगवानदास के घर का काम करना होता है. यह बात श्रवण को नागवार गुज़रती है.
वह भगवानदास को मुक्का जड़ देता है. भगवानदास श्रवण का कैरियर तबाह करने का फैसला कर लेता है. श्रवण से उसकी दुश्मनी और गहरा जाती है जब श्रवण भगवानदास की भतीजी सुनयना से प्रेमविवाह कर लेता है. मुक्केबाज़ी की नेशनल चैंपियनशिप में श्रवण हिस्सा लेता है लेकिन भगवानदास कहाँ चुप बैठने वाला है. वह श्रवण के खिलाफ साजिश रचता है.
क्या इस साजिश से श्रवण बच पाएगा. उसका मुक्केबाज़ बनने का सपना पूरा हो पाएगा. इस पर फ़िल्म की आगे की कहानी है. यह अनुराग की फ़िल्म है इसलिए फ़िल्म का पूरा ट्रीटमेंट रीयलिस्टिक है. जिस वजह से यह फ़िल्म रियलिटी के बहुत करीब लगती है. स्पोर्ट्स कोटा से सरकारी नौकरी के लिए छोटे शहर के युवा खेल को अपनाते हैं. नौकरी में भी उनकी राह आसान नहीं होती है. सिस्टम खेल की जगह और खिलाड़ियों का इस्तेमाल निजी कामों के लिए करते हैं.
भारत माता की जय से तथाकथित हिंदुत्व को संभालने वालों पर भी फ़िल्म में तंज कसा गया है. दादरी कांड से प्रेरित गौ मांस विवाद को फ़िल्म के एक दृश्य में जोड़ा गया है. यह भी दिखाया गया है कि आप भारत माता की जय के नाम पर किसी से भी अपनी पर्सनल दुश्मनी निकाल सकते हैं. इन सभी मुद्दों को भी फ़िल्म छूकर जाती है.
फ़िल्म का क्लाइमैक्स निराश करता है. स्पोर्ट्स फ़िल्म उसपर से हार, यह बात शायद ही आम दर्शक पसंद कर पाए. फ़िल्म की लंबाई इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खामी है.अनुराग फ़िल्म की एडिटिंग करना भूल गए हैं. फ़िल्म 20 से 30 मिनट तक लंबी हो गयी है.
अभिनय की बात करें तो विनीत अपने किरदार में पूरी तरह से रच बस गए हैं. उनकी मेहनत परदे पर दिखती है. एक शब्द में कहे तो वह कमाल कर गए हैं. जोया हुसैन प्रभावी रही हैं. जिमी अपने अभिनय से नफरत पैदा करने में कामयाब रहे हैं. रवि किशन हमेशा की तरह अपने अभिनय से छाप छोड़ जाते हैं. बाकी के किरदार भी कहानी के साथ न्याय करते हैं. कलाकारों का अभिनय इस फ़िल्म का प्लस पॉइंट है.
गीत संगीत की बात करें तो पूरी तरह से वह कहानी और बैकड्रॉप को ध्यान में रखकर बने हैं. जो फ़िल्म में एक अलग रंग भरते हैं.
फ़िल्म का संवाद इस फ़िल्म की महत्वपूर्ण यूएसपी में से एक है. जो फ़िल्म को मनोरंजक बना जाता है. संवाद में उत्तर प्रदेश की मिट्टी की खुशबू है.
फ़िल्म के संवाद फ़िल्म के फर्स्ट हाफ को खासा एंगेजिंग बना गए हैं. कई संवाद ऐसे हैं जो आपके चेहरे पर हंसी तो कभी सीटी और ताली मारने को मजबूर कर जाता है. फ़िल्म के दूसरे पहलू अच्छे हैं. आखिर में अनुराग कश्यप की यह फ़िल्म वास्तविकता को दर्शाने के साथ साथ मनोरंजन भी करती है.