फिल्म रिव्यू : इंसानी रिश्तों की भावनात्मक कहानी है ”बियॉन्ड द क्लाउड्स”
उर्मिला कोरी फ़िल्म: बियॉन्ड द क्लाउड्स निर्देशक: मजीद मजीदी कलाकार: ईशान खट्टर, मालविका मोहन, गौतम घोष रेटिंग: तीन माजिद मजीदी अंतर्राष्टीय सिनेमा का एक बहुत खास नाम हैं. वह इस बार भारतीय पृष्ठभूमि की कहानी को परदे पर लेकर आए हैं. फ़िल्म की कहानी आमिर (ईशान खट्टर) और उसकी बहन तारा (मालविका मोहनन) की है. […]
उर्मिला कोरी
फ़िल्म: बियॉन्ड द क्लाउड्स
निर्देशक: मजीद मजीदी
कलाकार: ईशान खट्टर, मालविका मोहन, गौतम घोष
रेटिंग: तीन
माजिद मजीदी अंतर्राष्टीय सिनेमा का एक बहुत खास नाम हैं. वह इस बार भारतीय पृष्ठभूमि की कहानी को परदे पर लेकर आए हैं. फ़िल्म की कहानी आमिर (ईशान खट्टर) और उसकी बहन तारा (मालविका मोहनन) की है. बचपन में ही उनके माता-पिता की मौत हो चुकी है. तारा शादी के बाद घरेलू हिंसा का शिकार होती है. उसके साथ उसका भाई भी. जिसके बाद आमिर तारा को छोड़कर बहुत बड़ा आदमी बनने के लिए निकल पड़ता है भले ही अपराध की राह हो.
वह छोटा मोटा ड्रग का कारोबारी है. एक दिन पुलिस उसके पीछे पड़ जाती है. वह तारा से मिलता है और ड्रग उसके पास छिपा देता है. लगता है कि दोनों भाई बहन की ज़िंदगी में सबकुछ ठीक हो जायेगा.
लेकिन इसी बीच तारा 50 वर्षीय अक्शी से अपनी इज़्ज़त को बचाने के लिए उसकी हत्या की कोशिश करती है. वह जेल पहुँच जाती है. वह जेल से तभी बच सकती है जब अक्शी ठीक होकर बयान देगा इसके लिए आमिर न चाहते हुए भी अक्शी की तीमारदारी में जुट जाता है.
इसके साथ ही अक्शी के परिवार की ज़िम्मेदारी भी उसको मिल जाती है. वहां जेल में एक दूसरी महिला कैदी के बेटे से तारा का आत्मीय रिश्ता जुड़ जाता है. मानवतावादी धरातल पर इन लोगों के बीच बना यही रिश्ता इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती है.
यह एक भावनात्मक फ़िल्म है लेकिन कहानी के कुछ छोर छुटे से लगते हैं. फ़िल्म के एक दृश्य में अक्शी की माँ अक्शी का इकबालिया बयान एक वकील के पास दर्ज करवाती है. यह बयान बहुत ही अहम है लेकिन उस दृश्य के प्रभाव को आगे नहीं दिखाया गया. फ़िल्म फर्स्ट हाफ में स्लो है. किरदारों को स्थापित करने में काफी समय लिया गया है.
फ़िल्म में डिटेलिंग की कमी खलती है. माजिद मजीदी का नाम जुड़ा होने की वजह से इन चीजों पर भी ध्यान चला ही जाता है. फ़िल्म के एक दृश्य में जब ईशान का किरदार दोनों बच्चियों और उसकी दादी को बारिश में अपने घर में लाने के लिए जाता है तो उसके पैरों में जूते होते हैं. नींद से जगा हुआ आदमी जूते पहनकर तो घर के बाहर तो नहीं निकलेगा.
ऐसे ही अक्शी की बड़ी बेटी के किरदार का लुक पूरी तरह से एक पारंपरिक दक्षिण भारतीय लुक में है लेकिन उसके साथ प्लेटफार्म हिल वाली सैंडल अटपटी सी लगती है. फ़िल्म के आखिर में जो होली का दृश्य है उसमें मुम्बइया होली की कहीं से भी छाप नज़र नहीं आती है. वह उत्तर भारत की होली के करीब ज़्यादा है.
अभिनय की बात करें तो ईशान खट्टर अपनी इस पहली फ़िल्म में ही एक परिपक्व अभिनेता के तौर पर नज़र आ रहे हैं. वह कॉमेडी, इमोशन, एक्शन और डांस सभी सीन में पूरी तरह से ढल गए हैं. मालविका मोहनन बेहतरीन रही हैं. तनिष्ठा और गौतम घोष के किरदार के लिए ज़्यादा कुछ करने को नहीं था.अक्शी की माँ और बेटियों के किरदार में नज़र आए कलाकार स्वाभाविक हैं.
फ़िल्म के लुक की बात करें तो अनिल मेहता की सिनेमाटोग्राफी अलहदा नहीं है. धोबी घाट, मुम्बई की झुग्गी झोपड़ियां अब तक ऐसे दृश्य हम कई फिल्मों में देख चुके हैं. कोई अलग मुम्बई फ़िल्म में ए आर रहमान का संगीत भी लुभाने में नाकामयाब रहा है.
विशाल भारद्वाज का संवाद भी औसत सा ही रहा है. कुलमिलाकर पटकथा की कुछ खामियों यह एक भावनात्मक कहानी है. कलाकारों का बेहतरीन परफॉरमेंस इसे और खास बना जाता है इसके बावजूद महान फिल्मकार माजिद मजीदी की इस फ़िल्म में कुछ ऐसा है जो हमने पहले भी देखा और महसूस किया है.