उर्मिला कोरी
फ़िल्म: वीरे दी वेडिंग
निर्देशक: शशांक घोष
कलाकार: करीना कपूर खान,सोनम कपूर आहूजा,स्वरा भास्कर,शिखा और अन्य
रेटिंग: तीन
महिला दोस्तों की कहानियों को हिंदी सिनेमा के रुपहले परदे पर कम ही मौके मिले हैं वो भी ऐसी महिलाओं की कहानियां जो ज़िंदगी के हर पहलू लव, सेक्स, रिश्तों और शादी पर बेबाक और बिंदास हैं. वो शराब और सिगरेट पीती हैं. गालियां देती हैं. शादी से पहले सेक्स करने पर हाय तौबा नहीं मचाती.
मुख्यधारा के सिनेमा में तो ऐसी अभिनेत्रियां कम ही नज़र आयी हैं और निर्देशक शशांक घोष की ‘वीरे दी वेडिंग’ में ऐसी एक नहीं चार अभिनेत्रियां हैं जो अपनी ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीना चाहती हैं.जो गलतियां करने से हिचकती नहीं है लेकिन वह उनसे सीख भी लेती हैं.
साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) जल्दीबाज़ी में की गयी अपनी शादी से छुटकारा चाहती है वह अपने पति से तलाक चाहती है. अवनी(सोनम कपूर) को शादी के लिए लड़के नहीं मिल रहे हैं और उसकी माँ उसकी शादी के लिए उसपर दबाव बना रही है. मीरा(शिखा) ने अपने परिवार के मर्जी के खिलाफ शादी की है जिसका उसे भी दुख है. कालिंदी (करीना)को कमिटमेंट फोबिया है लेकिन वह रिषभ(सुमीत व्यास) से प्यार करती है इसलिए वह शादी के लिए हां कह देती है.
कालिंदी की शादी में सभी दोस्त एक बार फिर मिलते हैं और अपनी अपनी कमज़ोरियों वो आगे की कहानी में डील करते नज़र आते हैं. क्या वह अपनी कमजोरियों से जीत पाते हैं. यही आगे की कहानी है. फ़िल्म का फर्स्ट हाफ काफी मनोरंजक है हां सेकंड हाफ में कहानी थोड़ी खिंचती हुई जान पड़ती है. फ़िल्म का क्लाइमेक्स काफी सपाट रह गया है थोड़ा और उस पर काम हो सकता था. लेखन की इन खामियों के बावजूद फ़िल्म मनोरंजन करती है.
अभिनय की बात करें तो करीना,सोनम,स्वरा और शिखा अपनी अपनी भूमिकाओं में पूरी तरह रचे बसे हैं. उनकी आपस की केमिस्ट्री शानदार है. फ़िल्म के दूसरे किरदारों ने भी उनका बखूबी साथ दिया है. फ़िल्म का गीत संगीत कहानी के अनुरूप है. सिनेमेटोग्राफी बेहतरीन हैं जो फ़िल्म के लुक को बहुत खूबरसूरत बना गया है. फ़िल्म के वन लाइनर्स हंसाते हैं.
संवाद फ़िल्म की यूएसपी है. हां इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संवाद और फ़िल्म का ट्रीटमेंट बोल्ड हैं जो बहुतों को पसंद नहीं भी आ सकता है क्योंकि हिंदी सिनेमा की हीरोइन अब तक सती सावित्री टाइप से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाई है लेकिन ऐसे लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि अगर पुरुष चरित्र को सिनेमा में अपनी इच्छाओं को व्यक्त करते हुए कोई पाबंदी नहीं होती है तो महिला चरित्रों को ही दायरों की दीवार क्यों दिखाई जाती है.