II उर्मिला कोरी II
फ़िल्म: सूरमा
निर्देशक: शाद अली
निर्माता: चित्रांगदा सिंह
कलाकार: दिलजीत दोसांज,तापसी पन्नू,अंगद बेदी,सतीश कौशिक,विजय राज और अन्य
रेटिंग: ढाई
बायोपिक फ़िल्म की बयार में ‘सूरमा’ का नाम भी जुड़ गया. सूरमा हॉकी प्लेयर संदीप सिंह की कहानी हैं. फ़िल्म में संदीप सिंह के दुनिया के सबसे तेज़ ड्रैग फ्लिकर बनने की कहानी को दर्शाया गया है. बचपन में कोच की मार से हॉकी छोड़ने वाले संदीप सिंह (दिलजीत दोसांज)युवा होने पर एक बार फिर हॉकी से जुड़ते हैं. वजह हॉकी से प्यार नहीं बल्कि हॉकी प्लेयर हरप्रीत (तापसी पन्नू) से इश्क़ होता है.
हरप्रीत के प्यार को पाने के लिए संदीप इंडियन हॉकी टीम का सदस्य बनने का सफर तय करता है क्योंकि वह इंडिया के लिए हॉकी खेलेगा तो उसे नौकरी मिलेगी और नौकरी मिलेगी तो ही हरप्रीत के घर वाले संदीप से शादी करवाएंगे.
सबकुछ संदीप की सोच के अनुसार ही चल रहा होता है. ज़िन्दगी उस वक़्त बदल जाती है जब ट्रेन में एक पुलिसकर्मी की लापरवाही से संदीप को गोली लग जाती है और वह खेलना तो दूर अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हो पाता है. उसके बाद चीज़ें कैसे बदलती हैं. क्या संदीप अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा. कल तक हरप्रीत के प्यार के लिए हॉकी खेलने वाला संदीप क्या देश के लिए हॉकी खेले पायेगा. आगे की कहानी इसी के इर्द गिर्द बुनी गयी है.
फ़िल्म की कहानी को बहुत ही सिंपल तरीके से कहा गया है. फर्स्ट हाफ थोड़ा धीमा हो गया है. दूसरे हाफ में कहानी रफ्तार पकड़ती है लेकिन इसके बावजूद परदे पर वह जादू नहीं जगा पायी है. फ़िल्म में ड्रामा की कमी खलती है. स्पोर्ट्स फ़िल्म का खास पहलू ह. इसके बावजूद कोई भी मैच ऐसे नहीं दिखे जिसमें थ्रिलर महसूस हो कि गोल हो पायेगा या नहीं.
गोली लगने के छह घंटे बाद संदीप को इलाज नसीब हुआ. नेशनल लेवल के हॉकी प्लेयर के साथ जब ऐसा होता है तो आम लोगों के क्या होता होगा. फ़िल्म में यह बात भी रखी गयी है कि देश का हर स्पोर्ट्स चाहता है कि उसे क्रिकेट जैसी तवज्जो मिले लेकिन क्या हर स्पोर्ट्स फेडरेशन अपने खिलाड़ियों को क्रिकेटर्स जैसी सुविधाएं देता है।सरसरी तौर पर ही सही इन सवालों को फ़िल्म में उठाया गया है.
अभिनय की बात करें तो दिलजीत दोसांज पूरी तरह से संदीप के किरदार में रच बस गए हैं. उन्होंने संदीप के संघर्ष को बखूबी जीया है. तापसी, अंगद बेदी और सतीश कौशिक अपनी भूमिका को अच्छे से निभा गए हैं. अभिनेता विजय राज का किरदार अच्छा बन पड़ा है उनके संवाद काफी रोचक हैं.
फ़िल्म का गीत संगीत कहानी के अनुरूप हैं. वह कहानी और सिचुएशन से मेल खाते हैं हालांकि वह थिएटर से निकलने के बाद याद नहीं रह जाते हैं. फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है. कुलमिलाकर यह फ़िल्म विपरीत परिस्थितियों में हौंसला न हारने की सीख तो देती है लेकिन मनोरंजन के नाम पर फ़िल्म कमज़ोर है जिससे यह एक औसत फ़िल्म बनकर रह गयी है.