सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्मों दम लगाके हईशा और टॉयलेट एक प्रेमकथा का का चेहरा अभिनेत्री भूमि पेंडेकर इनदिनों अपनी फिल्म सोनचिड़िया को लेकर खबरों में हैं. भूमि कहती हैं कि ‘दम लगाके हईशा’ से एक सुर लग गया. मैं उसी पर चल रही हूं. वैसे निजी तौर पर मैं बहुत ही सामाजिक तौर पर जागरुक इंसान हूं. मैं हमेशा ये कोशिश करती हूं कि अपने किरदारों के जरिए मैं समाज को कुछ वापस दे पाऊं. मैं बहुत खुशनसीब मानती हूं कि ऐसी औरतों की कहानी बोलने का मुझे मौका मिल रहा है. उर्मिला कोरी से हुई बातचीत
‘सोनचिड़िया’ में आपका लुक काफी अलग था कितना मुश्किल था किरदार को आत्मसात करने में ?
जब इस फिल्म का नरेशन अभिषेक सर ने दिया था तो उन्होंने उसी वक्त समझा दिया था कि आपको इस फिल्म की शूटिंग में टिके रहने के लिए शारीरिक और मान सिक तौर पर मजबूत बनाना होगा. बहुत ही डेप्थ ही हमारी ट्रेनिंग हुई थी. शुरुआत में समझ ही नहीं आ रहा था कि हम क्यों इतनी चीजें कर रहे हैं. ये सबसे अलग ट्रेनिंग थी मेरी. उन्होंने अपने ऑफिस में बकायदा एक गांव बसाया था. आरामनगर में मैं तीन चार किलोमीटर चलती थी नंगे पैर सर पर तीन चार लीटर पानी होता था. कंधे पर पांच से छह किलो की बोरी होती थी. आटे या चावल की. वो बहुत जरुरी थी क्योंकि अगर आप चंबल देखें वहां के बीहड देखें तो इतने पतले पतले रास्ते होते हैं. आपको खरोचे लगती हैं. अगर आप उस एरिया को अच्छे से नहीं जानते हैं तो आप बच नहीं सकते हो तो उसी की ट्रेनिंग हमें मिलनी शुरु हुई. हमने बुंदेलखंडी भाषा को सीखा . शुरुआत में लगा कि कैसे बोल पाएंगे क्योंकि बहुत ही अलग भाषा थी लेकिन जब तक हम शूटिंग सेट पर पहुंचते इतनी तैयारी हो चुकी थी कि हम एकदम सहज भाषा को लेकर थे. चेहरे को काला किया गया. दो महीने पहले से ही पेडीक्योर मैनीक्योर बंद हो गया था. मैंने गोबर के उपले बनाए थे . मैं रोज दो किलो आटा पीसती थी मसाले पीसती थी.पानी सींचती थी. चूल्हे पर खाना बनाती थी. यह सब सुनने में आसान लगता है लेकिन बहुत मुश्किल था. वहां की औरतें बहुत ही स्ट्रांग होती हैं. उनको बहुत कुछ करना और झेलना पडता है. किरदार के करीब तक पहुंचने के लिए यह जरुरी था कि मेरी दिनचर्या ऐसी बनें कि मैं किरदार को बखूबी समझ सकूं. किरदार के लिए मैंने खुद को बाहरी दुनिया से कट ऑफ कर लिया था. इस किरदार के लिए बहुत ही बदलाव खुद में लाने पडे. कई चीजें जो सीखी थी उन्हें भूलना पडा.
इस किरदार ने आपमें क्या बदलाव लाया ?
मैं खुद बहुत हद तक उनकी जैसे बन गयी थी. फिल्म के दौरान कई बार कांटा चुभा. अगर रियल लाइफ में मेरे साथ ऐसा होता था तो मैं तो चिल्ला चिल्ला कर दुनिया एक कर देती थी. टिटनेस का इंजेक्शन तक लगवा लेती थी लेकिन किरदार करते हुए कोई रिएक्शन ही नहीं होता था. जमीन पर पड़े रहते थे. धूल सब जगह. जब जाते थे तो पूरी बॉडी से किलो किलो काली रेत नहाते वक्त निकलती थी. कान ,नाक,मुंह सभी जगह बस रेत ही रेत. कुलमिलाकर सोनचिडिया करके मैं अच्छी और बेहतर इंसान बन गयी हूं. इस फिल्म को करते हुए ऐसे ऐसे अनुभव हुए मुझे लगा कि मैं बड़ी हो गयी. एक मैच्योरिटी आयी है.
‘बागी’ इस शब्द से आप कितना रिलेट करती हैं ?
मैं खुद को बागी ही कहूंगी जिस तरह के मैं किरदार करती हूं. जिस तरह की फिल्मों का हिस्सा हूं. वो मेरे बागी होने का ही सबूत है. जो भी इंसान होता है वो अपने आसपास के माहौल का प्रोडक्ट होता है. यही हमने फिल्म में बताने की कोशिश की. ये फिल्म एक रिवेंज ड्रामा है. इतनी अलग अलग सिचुएशन सभी किरदारों के साथ होती हैं कि वे बहुत ही स्ट्रेंथ दिखाते हैं.
आप निजी जिंदगी में बदला लेने में यकीन करती हैं या माफ करने में ?
मैं माफ करने में विश्वास करती हूं. मैं उस तरह की इंसान नहीं हूं जो किसी को लेकर नफरत पाले.
अभिषेक का कहना है कि यह फ़िल्म महिलाओं के शोषण को भी दिखाती है फ़िल्म के दौरान आपने कुछ अजीबोगरीब अनुभव किया हो ?
हम 1970 में बेस्ड इस फिल्म की कहानी को जी रहे हैं लेकिन आप गौर करें तो वहां अभी भी आधुनिकता नहीं आयी है. मुरैना अभी भी बाकी दुनिया से अलग है. इंटरनेट, टीवी और फोन सबकुछ है लेकिन सोच अभी भी वैसी ही है. मैं जब चंबल गयी थी अपनी तैयारी के लिए तो मैं अलग अलग गांवों में गयी थी. मैं वहां के औरतों से बात की थी. मैंने पाया कि मैंने अब तक जो भी किरदार किए. उनसे ये बहुत अलग है. वहां आज भी घूंघट न रखो तो आपकी बेइज्जती की जाती है. मैं अपनी तैयारी के लिए वहां की महिलाओं का वीडियो ले रही थी. मुझे इसके लिए बहुत डांट पड़ी थी. वहां की बूढ़ी औरतों से क्योंकि वहां की बहू बेटियां बिना परदे के कैमरे पर कैसे आ गयी. स•भी के महिलाओं के हाथ में मोबाइल जरुर है लेकिन किसी की कोई ओपिनिएन नहीं है. कोई ये नहीं जानता कि उनके लिए क्या सही है क्या गलत. 1970 की कहानी फिल्म की है लेकिन अगर आप गौर करेंगे तो 40 साल भी महिलाओं की स्थिति समाज में वैसी ही है. टेक्नॉलाजी आ गयी है लेकिन सोच वही है. महिलाओं की स्थिति समाज में अभी भी पशु से उपर नहीं है. पशु की हम पूजा करते हैं तो महिलाओं की क्यों नहीं कर सकते हैं.
क्या आपको लगता है कि शहरी महिलाओं की परेशानियां कम हैं ?
मैं बहुत ही सशक्त माहौल में पली बढ़ी हूं इसका मतलब ये नहींहै कि मेरी कोई दिक्कतें नहीं हैं या मेरे आसपास कोई परेशानी ही नहीं है. जैसे आप मीटू मूवमेंट को ले लीजिए. मीटू मोमेंट ज्यादा अर्बन क्लास के लिए ही है. जहां पावर प्ले की वजह से लोगों का शोषण होता है. परेशानी सोच में हैं चूंकि मैं मर्द हूं इसलिए महिलाओ से ज्यादा स्ट्रांग हूं. हमें यही सोच तो बदलनी है. अलग अलग लेवल पर लोगों का शोषण होता है. सिर्फ औरतें ही नहीं बच्चों का भी होता है. हम कैसे एक ऐसा समाज बनाए जहां आप और मैं एक ही हो. इसके लिए हमें शिक्षा को बढावा देना होगा. जागरुकता लानी होगी. हर चीज की जिम्मेदारी हम सरकार को नहीं दे सकते हैं. हमें भी अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी समाज को बेहतर बनाने के लिए.
शहर की महिलाएं फिर भी मुखर हैं क्या गाँव की महिलाएं अन्याय के खिलाफ बोल पाती हैं ?
‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ में मेरा किरदार जिस महिला पर आधारित था वह एमपी के एक छोटी से गांव से थी. इस फिल्म में मेरा किरदार चंबल के मुरैना गांव से हैं. आप गौर करें तो छोटे शहर या गांव से महिलाएं एक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर मिसाल बन रही हैं. ये अलग बात है कि हमें पता नहीं चलता है फिर एक फिल्ममेकर आता है जो इन कहानियों को सामने ले आता है. ये हमारा योगदान है कि हम अपनी फिल्मों से म हिलाओं में हिम्मत जगा रहे हैं. आप एक महिला को हिम्मत तो दो चार और आएंगी. इसी तरह से तो क्रांति आती है.