फिल्म – द ताशकंद फाइल्स
निर्देशक – विवेक अग्निहोत्री
कलाकार – मिथुन चक्रवर्ती, नसीरुद्दीन शाह, पल्लवी जोशी, मंदिरा बेदी, श्वेता बसु प्रसाद, राजेश कुमार और अन्य
रेटिंग – ढाई
ll उर्मिला कोरी ll
पॉलिटिकल ड्रामा के जॉनर पर बहुत कम फिल्में हिंदी सिनेमा में बनती हैं. खासकर वो किसी राजनीति या किसी एजेंडे से प्रेरित न हो, ऐसा मुश्किल है. इस बात से ‘द ताशकंद फाइल्स’ भी अछूती नजर नहीं आती है. विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ताशकंद फाइल्स भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत से जुड़ी है.
शास्त्री जी पाकिस्तान के साथ समझौता साइन करने के लिए ताशकंद गये थे, वहीं उनकी मौत हो गयी थी. फिल्म की कहानी में दिखाया गया है कि युवा पत्रकार रागिनी फुले अपना जॉब बचाने के लिए एक स्कूप की तलाश में है.
उसे शास्त्री जी की मौत से जुड़े कुछ दस्तावेज मिलते हैं, जो बताते हैं कि शास्त्रीजी की मौत जहर से हुई थी लेकिन इस साजिश को छिपाने के लिए उनका भारत में पोस्टमार्टम नहीं हुआ था. ताशकंद से जब शास्त्री जी का मृत शरीर आया था, तो उसमें कई कट्स थे और शरीर से खून निकलनेके भी निशान थे.
जॉब बचाने के लिए स्कूप ढूंढने वाली रागिनी के लिए यह खबर उनकी जिंदगी का मकसद बन जाता है. वो सच तक जाना चाहती है लेकिन राह आसान नहीं है. यही फिल्म की आगे की कहानी है.
फिल्म की कहानी को पुख्ता करने के लिए कई वीडियो इंटरव्यूज, किताबों का उल्लेख करने के साथ-साथ रशियन स्पाय एजेंसी केजीबी (KGB) के पुराने दस्तावेजों और उससे जुड़े लोगों के इंटरव्यूज का भी प्रयोग किया गया है.
केजीबी के पुराने दस्तावेज कई चौंकाने वाले खुलासे करते हैं कि 70 के दशक में केजीबी के दुनिया के कई देशों को चलाती थी, जिसमें भारत भी शामिल था और उस वक्त की प्रधानमंत्री भी लेकिन फिल्म के आखिर में उन्हीं दस्तावेजों के नीचे एक लाइन में लिखा होता है कि ये दस्तावेज पूरी तरह से पुख्ता नहीं हैं.
मतलब बात घूम-फिर कर वहीं पर आ जाती है, जहां से शुरू हुई थी. गंभीर विषयों पर जब आप फिल्म बनाते हैं, तो आपको जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहिए. फिल्म देखने के बाद एक आम दर्शक की लालबहादुर शास्त्री जी की मौत पर दुविधा बनी रहती है.
गौर करें, तो भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की मौत से जुड़ी थ्योरीज जो इंटरनेट या किताबों में मौजूद हैं, उसी को फिल्म में दिखाया गया है. फिल्म में कोई नया पहलू सामने नहीं आ पाया है.
शास्त्री जी की मौत से जुड़े तथ्य रखने के बजाय कई बार उनके नाम पर आक्रोश भड़काने का काम भी फिल्म करती दिखती है. ‘गांधी और नेहरु का देश है, तो शास्त्री का क्यों नहीं?’ जैसे दृश्य और संवाद इसके गवाह हैं. फिल्म सोशलिज्म और सेक्युलरिज्म पर भी सवाल उठाती है.
फिल्म के निर्देशक भले ही इस फिल्म को गैर राजनीतिक बताएं, लेकिन चुनाव के इस मौसम में फिल्म का आना कई सवाल खड़े करता है. फिल्म में इंदिरा गांधी का भले ही नाम खुले तौर पर नहीं लिया गया है, लेकिन उनकी तस्वीर और एक दस्तावेज में उनका नाम दिखाना फिल्म के एजेंडे को सामने ले आती है.
किसी खास पार्टी के सत्ता में रहते हुए उसके तमाम घोटालों के नाम भी याद दिलाये गए हैं. फिल्म बैलेंस बनाने की चतुर कोशिश करती है, लेकिन वह नजरों से बच नहीं पाती है.
अभिनय की बात करें, तो वह इस फिल्म का सशक्त पहलू है. नसीरुद्दीन शाह, मिथुन चक्रवर्ती, पल्लवी जोशी, पकंज त्रिपाठी जैसे उम्दा नाम फिल्म से जुड़े हैं, जिससे परदे पर अभिनय का अच्छा तानाबाना बुना हुआ है.
सभी ने बेहतरीन काम किया है, लेकिन बाजी श्वेता बसु प्रसाद और मिथुन ने अपने किरदारों में मारी है. बाल कलाकार के तौर पर राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी श्वेता बसु प्रसाद ने उम्दा अभिनय किया है.
मिथुन चक्रवर्ती ने त्रिपाठी के किरदार में अच्छा मनोरंजन किया है. फिल्म में इन दोनों कलाकारों को सबसे अधिक स्पेस भी मिला है. फिल्म का गीत-संगीत औसत है. फिल्म के संवाद अच्छे बन पड़े हैं, जो दृश्यों को प्रभावी बना जाते हैं. फिल्म के क्लाइमैक्स में अलग-अलग तरह के आतंकवाद की परिभाषा वाला दृश्य अच्छा बन पड़ा है. फिल्म की सिनेमाटोग्राफी बढ़िया है.