- फिल्म : बाटला हाउस
- निर्माता : जॉन अब्राहम
- निर्देशक : निखिल आडवाणी
- कलाकार : जॉन अब्राहम, मृणाल, राजेश शर्मा, रवि किशन, आलोक, क्रांति प्रकाश और अन्य
- रेटिंग : तीन
उर्मिला कोरी
यह फिल्म 19 सितंबर 2008 को बाटला हाउस में इंडियन मुजाहिदीन के आतंकियों के खिलाफ हुई मुठभेड़ पर आधारित है, जिसमें दो संदिग्ध मारे गए थे, एक पकड़ा गया था और एक भाग निकला था. कई मीडिया हाउसेस, राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने इस मुठभेड़ को फर्जी करार दिया था लेकिन न्यायालय ने संदिग्धों को आतंकवादी करार देते हुए उन्हें सजा सुनायी थी. फिल्म इन दोनों ही दृष्टिकोण से कहानी को कहती है. दोनों पक्षों को निर्देशक निखिल परत दर परत सामने लेकर आये हैं.
फिल्म की कहानी की बात करें, दिल्ली में सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद दिल्ली पुलिस की नाकामयाबी पर बात हो रही है. इसी बीच संजीव कुमार अपनी टीम से बात करते हैं, जो बाटला हाउस एल 18 इमारत में है. वह अपनी टीम से संदिग्धों को एंगेज करने को कहते हैं लेकिन जब तक संजीव कुमार वहां पहुंचते हैं. मुठभेड़ शुरू हो जाती है. वह मोर्चा संभालते हैं. मालूम पड़ता है कि उनके दो पुलिस साथ गंभीर रूप से घायल हो गए हैं. किसी तरह संजीव कुमार अपनी टीम के साथ एक संदिग्ध को जिंदा पकड़ने में कामयाब होते हैं.
संजीव कुमार के एक घायल साथी (रवि किशन) की मौत हो जाती है. संजीव कुमार की हौसलाअफजाई के बजाय पूरा सिस्टम उनके खिलाफ खड़ा हो जाता है. क्या राजनेता क्या मीडिया सभी उसके खिलाफ है. संजीव कुमार अंदर से टूट जाता है पोस्ट ट्रॉमेटिक डिसऑर्डर मानसिक बीमारी से वह जूझने लगता है. वह आत्महत्या के बारे में भी सोचने लगता है. क्या संजीव कुमार इन सबसे खुद को और टीम को बेगुनाह साबित कर पाएगा? क्या वह गुनाहगारों से उनके अंजाम तक पहुंचा पाएगा. यही आगे की कहानी है.
फिल्म पुलिस की खूबियों और खामियों दोनों पर बात करती है, जो फिल्म का अच्छा पहलू है. फिल्म का पूरा ट्रीटमेंट देशभक्ति से लबरेज है, जो इन दिनों सबसे हिट फार्मूला भी है. फिल्म में जबरदस्त तरीके से इसे हर दृश्य के साथ पेश करने की कोशिश की गयी है. फिर चाहे झंडा फहराने वाले दृश्य में जॉन के किरदार का रुक जाना हो या फिर फिल्म के दूसरे दृश्य. मरने वाले आतंकी हैं या मासूम कॉलेज स्टूडेंट फिल्म फर्स्ट हाफ में इस रुचि को बरकरार रखने में कामयाब रही है.
फिल्म सेकंड हाफ में थोड़ी धीमी हो गयी है. फिल्म की एडिटिंग पर थोड़ा और काम करना था. फिल्म का क्लाइमेक्स भी कमजोर रह गया है. अदालती कार्यवाही वाला सीन उस तरह से प्रभावी नहीं बन पाया, जिस तरह से उसे बनना चाहिए था. बहसबाजी और अच्छे तर्कों के साथ अगर उसे पेश किया जाता तो यह एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी.
देश के सबसे बड़े एनकाउंटर्स में से एक बाटला हाउस की चर्चा बहुत हुई थी. फिल्म सिलसिलेवार तरीके से उस घटना को सामने लाती है. यह फिल्म उस घटना का एक अच्छा दस्तावेज है. कुछ मामलों में अच्छी जानकारी भी दी गयी है. गोली अगर सामने से लगती है तो कोई जरूरी नहीं है कि खून सामने से ही निकले. ये बॉलीवुड की फिल्मों में होता है असल जिंदगी में नहीं. फिल्म की विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए नेताओं के भाषण के कई रियल फुटेज का भी इस्तेमाल हुआ है.
अभिनय की बात करें, तो जॉन अब्राहम का यह बेहतरीन परफॉर्मेंस रहा है. वह हीरो जॉन नहीं बल्कि संजीव के किरदार के ज्यादा करीब रहे. रवि किशन ने भी अच्छा काम किया है लेकिन उनके किरदार को थोड़ा और विस्तार देने की जरूरत थी. क्रांति प्रकाश का किरदार छोटा जरूर है, लेकिन उन्होंने फिल्म को एक मजबूती दी है. मृणाल कमजोर रह गयी हैं ना तो वो जर्नलिस्ट की भूमिका में प्रभावित कर पायी ना ही पत्नी के. नोरा फतेही, आलोक पांडे, शाहिदुर रहमान भी अपने काम से नोटिस होने में कामयाब हुए हैं.
फिल्म के गीत-संगीत की बात करें, तो ज्यादा गाने नहीं है दो से तीन गाने हैं. नोरा फतेही का पार्टी सांग पहले से लोगों का दिल जीत चुका है. फिल्म के संवाद अच्छे बने हैं. ये कहानी को और प्रभावी बनाते हैं. फिल्म की कहानी के साथ इसका लुक भी रीयलिस्टिक है. कुल मिलाकर कुछ खामियों के बावजूद यह एक एंगेजिंग फिल्म है.