IIउर्मिला कोरी II
फिल्म : पानीपत
निर्देशक : आशुतोष गोवारिकर
कलाकार : अर्जुन कपूर, कृति शेनॉन, संजय दत्त, मंत्रा, मोहनीश बहल,पद्मिनी कोल्हापुरी और अन्य
रेटिंग : ढाई स्टार
एक वक्त था जब निर्माता-निर्देशक आशुतोष गोवारिकर पीरियड फिल्मों के पर्याय हुआ करते थे. ‘लगान’ और ‘जोधा अकबर’ जैसी फिल्में इसकी गवाह रही है. हालांकि पिछले कुछ समय से इस विधा में उनकी पकड़ पहले जैसी मजबूत नहीं रही है. इस बार उन्होंने पानीपत की कहानी को चुना है.
मराठाओं और अहमद शाह अब्दाली के बीच की इस जंग में मराठों की हार हुई थी. हीरो की पूजा करने वाले और जीत को सबकुछ समझने वाले हमारे समाज में फिर ऐसी कहानी को क्यों दोहराया जा रहा है.
इस बात को फ़िल्म की शुरुआत में ही कहा गया कि कुछ चीज़ें जीत और हार से परे होती है. आशुतोष ने अपनी इस कहानी में दिखाया है कि किस तरह से मराठा योद्धा सदाशिव भाऊ ने उस वक़्त भारत के राजाओं को एकजुट कर विदेशी आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली को रोकने की कोशिश की थी लेकिन उस वक़्त भी कोई मराठा था कोई राजपूत तो कोई सिख लेकिन भारतीय कोई नहीं था.
आशुतोष ने पानीपत के युद्ध को इस पहलु से प्रस्तुत करने की कोशिश की है, लेकिन रोचक तरीके से प्रस्तुत नहीं कर पाए है. अब क्या होगा ये सवाल और उत्सुकता दोनों ही फ़िल्म को देखते हुए नहीं रहती है. ना तो रोचक युद्ध नीति और ना ही राजनीतिक तौर पर कोई खास दांव पेंच वाला पहलू आ पाया है.
युद्ध के दौरान अपनी पत्नियों को साथ लेकर चलना जैसे कई दृश्य सिनेमैटिक लिबर्टी को दर्शाते हैं. इसके बावजूद फ़िल्म एंटरटेनिंग नहीं बन पायी है.
उसपर से बेवजह की फिल्म की लंबाई बढ़ा और अधिक मामला बोझिल वाला हो गया है. हिंदी सिनेमा में लगातार इन दिनों पीरियड फिल्में बन रही हैं. इस फ़िल्म के साथ भी यही मसला नज़र आया. बाजीराव मस्तानी की कई बार यह फ़िल्म याद दिलाता है. फ़िल्म के सेट्स हो या वीएफएक्स कुछ नयापन लिए नहीं हैं.
अभिनय की बात करें तो अर्जुन कपूर के लिए यह पहला मौका है जब वो ऐतिहासिक किरदार में नजर आए हैं. उन्होंने अपनी तरफ से पूरी मेहनत की है. हालांकि वह उस तरह प्रभावी नज़र नहीं आए हैं. जैसी उनसे उम्मीद थी।कृति ने पार्वती के किरदार को अच्छी तरह से जिया है. उन्हें परदे पर देखकर एक बार भी यह बात जेहन में नहीं आती कि वो मराठी मुलगी नहीं है.
संजय दत्त जैसे कलाकार को इतने बेहतरीन किरदार देने के बावजूद उनसे आशुतोष ने काम ही नहीं लिया है. वह सिर्फ संवाद बोलते ही नजर आते हैं। जबकि उम्मीद थी कि अर्जुन और उनके बीच युद्ध के दृश्य होंगे. संजय दत्त और अर्जुन के बीच एक भी दृश्य युद्ध का नहीं है. यह बात नहीं समझती है. मंत्रा ने मतलब परस्त बिचौलिए के रूप में उम्दा अभिनय किया है. मोहनीश और जीनत अमान के पास करने को कुछ नहीं था. पद्मिनी कोल्हापुरी अपने अभिनय में जमी हैं. फ़िल्म का संवाद और गीत संगीत कहानी के अनुरूप हैं.
कुल मिलाकर कहा जाए तो सशक्त इतिहास की घटना पर आशुतोष की कमजोर फिल्म है.