II उर्मिला कोरी II
फ़िल्म: पंगा
निर्माता: फॉक्स स्टॉर स्टूडियो
निर्देशक: अश्विनी अय्यर तिवारी
कलाकार: कंगना रनौत, यज्ञ भसीन, जस्सी गिल, रिचा चढ्ढा, नीना गुप्ता और अन्य
रेटिंग: साढ़े तीन
‘नील बट्टे सन्नाटा’ के बाद निर्देशिका अश्विनी अय्यर तिवारी एक बार फिर एक मोटिवेशनल कहानी लेकर आयी हैं. नील बट्टे सन्नाटा में एक मां अपनी बेटी के लिए फिर से पढ़ाई शुरू करती है तो वहीं पंगा में एक माँ अपने बेटे के लिए फिर से अपने सपने को जीना शुरू करती है. फ़िल्म का ट्रीटमेंट एकदम आम रखा गया है जो इसे खास बना देता है.
कसी हुई स्क्रिप्ट, बेहतरीन डॉयलाग और उम्दा अदाकारी ने इस फिल्म को बेहतरीन फिल्मों की चुनिंदा लिस्ट में शामिल कर दिया है. यह फ़िल्म इस बात को फिर पुख्ता करती है कि कंटेंट ही किंग है.
कहानी कबड्डी के एक बेहतरीन खिलाड़ी जया (कंगना रनौत) की है. एक वक्त भारतीय कबड्डी की कप्तान रह चुकी जया अब अपने पति के कैरियर और अपने बेटे की देखरेख में कबड्डी के कैरियर या कहे अपने सपने को कहीं पीछे छोड़ चुकी है. वह खिलाड़ी कोटे से रेलवे में नौकरी करती है.
खिलाड़ी वाले सम्मान की पहचान अब उसकी नहीं रही है. बॉस की धौंस सहती है. घरेलू वर्किंग वूमेन की तरह वह घर और ऑफिस मैनेज करती हैं लेकिन एक दिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती है कि वह अपने बेटे के स्पोर्ट्स डे में नहीं जा पाती है. बेटा गुस्से में दो टूक जवाब दे देता है कि उसकी माँ कुछ खास काम तो करती नहीं है फिर भी उसके पास समय नहीं है. उसका पिता उसे बताता है कि उसकी माँ कबड्डी की नेशनल प्लेयर रह चुकी हैं और मां कभी कबड्डी के लिए ही जीती थी लेकिन उनदोनों के लिए उन्होंने वो सपना छोड़ दिया.
बेटा जिद पकड़ता है कि मां को वापस अपने सपनों को जीना चाहिए. इसके बाद शुरू होती है लंबे समय से खेल की दुनिया से बाहर रही जया का अपने सपने की तरफ लौटने के संघर्ष की कहानी. 5 सीढियां चढ़ने में थक जाने वाली एक बेटे की मां जया कबड्डी में वापसी कर पाएगी. इसी संघर्ष की कहानी पंगा है. पंगा की कहानी आँखें नम करने के साथ साथ दिल जीत ले जाती है. अश्विनी ने फिल्म के माध्यम से यह संदेश दिया है कि एक महिला परिवार के लिए अपने सपनों को कैसे दबा देती है और कैसे परिवार सपनों को फिर से जिंदा करने में मदद कर सकता है.
फ़िल्म मोटिवेशनल होने के बावजूद ज़रूरत से ज़्यादा मैलोड्रामेटिक और संदेशप्रद नहीं है जो इसे उम्दा फ़िल्म बनाती है. हां फ़िल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा खींच गया है लेकिन सेकंड हाफ में कहानी फिर पटरी पर लौट आती है.कहानी को बहुत ही सहजता से लिखा गया है जिससे हर दृश्य के मायने बनते हैं. फ़िल्म बताती है कि कोई भी सपना कठिन नहीं बस पंगा लेने का जज्बा दिल में अगर है तो. फ़िल्म ज़िन्दगी और रिश्तों की कहानी है जिसे कबड्डी के दांव पेंच के साथ बखूबी जोड़ा गया है. फ़िल्म में विलेन कोई नहीं है बस हालात हैं.
अभिनय की बात करें तो कंगना उम्दा रही हैं. सहज अभिनय से उन्होंने फिल्म को खास बना दिया. हाउसवाइफ के तौर पर वह जितनी सहज रही है कबड्डी के खिलाड़ी के तौर पर वह आक्रमक दिखी हैं. सात साल के बच्चे का रोल अदा कर रहे यज्ञ ने अपने अभिनय से जबरदस्त छाप छोड़ी है. रिचा भी अपने संवाद और अभिनय से फ़िल्म में अलग ही रंग भरती हैं. जस्सी गिल ने भी अच्छा काम किया है. कुलमिलाकर हर किरदार ने अपना बेस्ट दिया है.
दूसरे पहलुओं में संवाद की बात करें तो वह चुटीले होने के साथ साथ कहानी को और प्रभावी बनाते हैं.जब तुम्हें देखती हूं तो खुश होती हूं, जब आदित्य को देखतीं हूं तो खुश होती हूं, पर खुद को देखने पर खुश नहीं हो पाती" जैसे इमोशनल डॉयलाग तो है ही कंगना के बेटे बने नन्हें यज्ञ भसीन के डायलॉग कहानी को लाइट बनाते है. डायलॉग बहुत अच्छे बन पड़े हैं. फ़िल्म का संगीत फ़िल्म के विषय के साथ पूरी तरह न्याय करता है. कुलमिलाकर यह फ़िल्म पूरे परिवार के साथ देखी जानी चाहिए. यह फ़िल्म हर मां को समर्पित है.