नयी दिल्ली : क्यों…?, यह वही सवाल था जब दिबाकर बनर्जी ने, डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी…. की यात्रा पर अपनी फिल्म शुरु करने के दौरान अपने आप से पूछा था… जैसा कि राजनीतिक रूप से अस्थिर 1940 के दशक के कलकत्ता में अपराध को सुलझाने वाले युवा जोश से भरे धोतीधारी जासूस ने किया था. यह फिल्म उनके बचपन के सपनों में से एक रही है और महत्वाकांक्षी भी. साथ ही यह अब तक की सबसे मुश्किल फिल्म रही है.
निर्देशक ने शारदेंदू बंदोपाध्याय की ब्योमकेश की सारी कहानियों के अधिकार हासिल कर लिए हैं. उन्होंने कहा कि उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा हमेशा यह जानने की थी कि एक ऐसे समय में जब रोजगार मुश्किल से मिलता हो ऐसे में इस युवा शख्स ने इस तरह के अप्रचलित कैरियर को क्यों चुना.
पीरियड फिल्म होने के बावजूद दिबाकर का मानना है कि ब्योमकेश आज का युवा है. निर्देशक को विश्वास है कि यदि यह फिल्म चलती है तो यह एक सच्चे भारतीय को नायक के तौर पर लोकप्रिय बनायेगी और बंगाल की परंपरा को फिर से चलन में लायेगी.
निर्देशक ने अपनी फिल्मी यात्रा की शुरुआत खोंसला का घोंसला से की थी. इसके बाद उन्होंने ओए लकी ओए, लव सेक्स और धोखा एवं शंघाई में विभिन्न समकालीन समस्याओं को दर्शाया था. उन्होंने कहा कि वह पहली ही बार में ब्योमकेश की यात्रा पर फिल्म बनाना चाहते थे.
यह फिल्म तीन अप्रैल को रिलीज होगी. फिल्म में आनंद तिवारी और स्वास्तिका मुखर्जी प्रमुख भूमिकाओं में हैं. फिल्म दिबाकर बनर्जी प्रोडक्शंस और यश राज फिल्म्स के तहत बनी है.मैं इसे अपनी शैली में बनाना चाहता था. जब आप किसी किताब पर फिल्म बनाते हैं तब आप इसमें कई चीजें शामिल कर सकते हैं. मैं और फिल्म के पटकथा लेखक उर्मी जुवेकर साथ बैठे और जो पहला सवाल हमारे सामने उठा वह यह कि आखिर ब्योमकेश को ही क्यों बनाया जाये?
हमने जाना कि ब्योमकेश को हम इसलिए बनाना चाहते हैं क्योंकि हम यह जानना चाहते थे कि 1940 के दशक में आखिर क्यों कॉलेज से निकला एक युवक जासूस बनना चाहेगा. मैं इसे बनाना चाहता था और मैं जानता था कि मैं जल्दी या बाद में इसे बनाऊंगा जरूर. जब आप फिल्म बनाते हैं, आप भाग्य में थोड़ा बहुत विश्वास करना शुरू कर देते हैं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने इसके लिए कितनी मुश्किलें झेलीं.