II अनुप्रिया अनंत II
फिल्म : मिस टनकपुर हाजिर हो
कलाकार : रवि किशन, संजय मिश्रा, ओमपुरी, अन्नु कपूर, राहुल बाघा
निर्देशक : विनोद कापरी
रेटिंग : 1 स्टार
‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ पत्रकार रह चुके विनोद कापरी की पहली फिल्म है. उन्होंने व्यंगात्मक तरीके से फिल्म की कहानी कहने की कोशिश की है. एक गांव है टनकपुर . वहां भैंसों का मेला लगता है कि और गांव के प्रधान जिनके पास बहुत पैसे हैं, वे उस मेले में अपनी भैंस को भाग दिलवाते हैं और वह जीत भी जाती है. और यही वजह है कि उसे मिस टनकपुर घोषित कर दिया जाता है.
यह भैंस प्रधान को इसलिए प्रिय है क्योंकि वह काफी दूध देती है. प्रधान अधेड़ उम्र का आदमी है. और एक युवा लड़की से उसने ब्याह रचा लिया है. लेकिन उसके साथ वह जानवरों से भी बत्तर व्यवहार करता है. ऐसे में उसे अर्जुन के रूप में एक साथी मिलता है, जो उसका ख्याल रखता है. लेकिन प्रधान को इस बारे में जानकारी मिल जाती है और वह अर्जुन को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ता.
फिल्म में दर्शाया जाता है कि इंसान किस तरह अपना मतलब साधने के लिए किसी व्यक्ति के साथ बुरा बर्ताव कर सकता है. वह किसी हद तक गिर सकता है. अर्जुन को बर्बाद करने के लिए उस पर एक भैंस के साथ बलात्कार के आरोप लगा दिये जाते हैं. निस्संदेह निर्देशक ने एक अच्छा विषय चुना है. ऐसी कई घटनाएं हकीकत में घटी हैं, जहां किसी को बर्बाद करने के लिए कई गांवों में ऐसे हथकंडे अपनाये जाते हैं और किस तरह एक पैसे वाले व्यक्ति के पास सारे पॉवर होते हैं.
किस तरह पुलिस प्रशासन जब बिके होते हैं. दुर्भाग्यवश सारे बेहतरीन कलाकार होने के बावजूद फिल्म प्रभावित नहीं करती. कहानी आपको सुर में नहीं लगती. भीमा के किरदार में रवि किशन और प्रधान के किरदार में अन्नु कपूर अपने किरदारों में नये नहीं लगते. सबसे अफसोस इस बात का है कि संजय मिश्रा जैसे कलाकार के किरदार को सही ढंग से गढ़ा नहीं गया.
यह कम ही होता है जब संजय अपनी फिल्मों में छोटी भूमिका में भी प्रभावित नहीं करते. लेकिन इस बार वे भी चूके हैं. फिल्म के किसी संवाद पर हंसी नहीं आती. किरदारों में हड़बड़ी नजर आती है. अत्यधिक मेलोड्रामा अब बोर करती है. लेकिन निर्देशक विनोद की यह पहली फिल्म है. उस लिहाज से कहा जाना चाहिए कि उन्होंने एक अच्छे विषय का चुनाव किया है.
अगर कहानी को और बेहतरीन तरीके से लिखा जाता. किरदारों को सही तरीके से गढ़ा जाता तो निश्चित तौर पर फिल्म उम्दा होती. फिल्म में कई ऐसे बेवजह हथकंडे अपनाये गये हैं, जो आपको आकर्षित नहीं करते. बल्कि आप बोर होते जाते हैं. व्यंग्य को अगर रोमांचक तरीकेे से प्रस्तुत किया जाये. तभी उसका स्वाद आता है. इस बार वह स्वाद फीका नजर आया. राघुल बाघा अर्जुन के किरदार में बिल्कुल प्रभावित नहीं करते.
ओम पुरी अपनी फिल्मों में लगातार एक से किरदार निभा कर अब बोर करने लगे हैं. फिल्म की कमजोरी यह थी कि इसमें एक किरदार भी उभर कर सामने नहीं आ पाया. और निर्देशक की कोशिश थी कि वे सारे विषय को एक साथ दिखा देना चाहते थे. यही वजह है कि उनकी फिल्म में किसी एक विषय पर फोकस नहीं रह पाया. वे खाप पंचायत, घरेलू हिंसा, बाल विवाह, और जानवरों के साथ हो रहे बुरे बर्ताव सभी मामलों को एक साथ दर्शाने की सोच लेकर अपने विषय से पूरी तरह से भटक गये हैं. ऋषिता भट्ट अब भी अपने किरदार में मंझी नहीं हैं.