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फिल्‍म रिव्‍यू : अंधेरे की क्रूरता को रोशनी दिखाती ”चौरंगा”

II अनुप्रिया अनंत II फिल्म : चौरंगा कलाकार : तनिष्‍ठा चटर्जी, संजय सूरी, रिद्धि सेन, धृतिमान चटर्जी, अर्पिता चटर्जी, अंशुमन झा, सोहम मैत्रा निर्देशक : विकास रजन मिश्रा रेटिंग : 3 स्टार विकास रंजन मिश्रा की फिल्म ‘चौरंगा’ के शीर्षक से इस बात का अनुमान होता है कि फिल्म में जिंदगी के सेलिब्रेशन की कहानी […]

II अनुप्रिया अनंत II

फिल्म : चौरंगा

कलाकार : तनिष्‍ठा चटर्जी, संजय सूरी, रिद्धि सेन, धृतिमान चटर्जी, अर्पिता चटर्जी, अंशुमन झा, सोहम मैत्रा

निर्देशक : विकास रजन मिश्रा

रेटिंग : 3 स्टार

विकास रंजन मिश्रा की फिल्म ‘चौरंगा’ के शीर्षक से इस बात का अनुमान होता है कि फिल्म में जिंदगी के सेलिब्रेशन की कहानी होगी. लेकिन हकीकत यह है कि विकास मिश्रा अपनी फिल्म के माध्यम से एक ऐसे वर्ग की कहानी प्रस्तुत करते हैं, जहां अब भी अंधकार है. ‘चौरंगा’ के अधिकतर दृश्य अंधकार में फिल्माये गये हैं. फिल्म के एक दृश्य में बड़ा भाई जो हॉस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहा है, अपने गांव में रह रहे छोटे भाई को चार रंगों वाली कलम निकाल कर दिखाता है.

एक ही कलम में चार रंगों की रिफिल है. जिससे एक ही बात को चार रंगों में लिखा जा सकता है. निर्देशक ने इस एक दृश्य में अपनी फिल्म की पूरी कहानी और उद्देश्य को स्थापित कर दिया है. उन्होंने इस कलम के माध्यम से उस समाज को व्यंग्यात्मक तरीके से संबोधित किया, जहां एक ही समाज में चार तरह के लोग रहते हैं. इस फिल्म में एक ऐसे वर्ग की कहानी है, जो जात पात के आधार पर हमेशा ही शोषित किये जाते हैं.

निर्देशक एक साथ कई मुद्दे दर्शकों के सामने उजागर करते चलते हैं. दिन के उजाले में जिसके स्पर्श से मंदिर मैला हो जाता है. रात के अंधेरे में उसका ही शोषण शान की बात मानी जाती है. निर्देशक ने क्रूर सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की है. फिल्‍म के किरदार काफी डार्क हैं. और हर किरदार की एक कहानी है. इसी गंभीरता के बीच बच्चे संतू और जमींदार की बेटी के बीच कही अनकही प्रेम कहानी और उसकी मासूमियत दिल को छूती है. संतू अपने बड़े भाई से पूछे गये मासूम से सवाल दरअसल, पूरे सामाजिक ढांचे की संरचना पर सवाल खड़े करते हैं.

आखिर गांव में रेलगाड़ियां क्यों नहीं रुकतीं, मैं स्कूल क्यों नहीं जा सकता, जमींदार बाबू या मंदिर को छूने से मंदिर मैला कैसे हो जाता है. संतू के मन की जिज्ञासाओं के साथ ही हम भी कई पहलुओं को देखते चलते हैं. इन सबके साथ ही घरेलू हिंसा व पति की गलतियों के बावजूद पति को परमेश्वर मानने की प्रथा का सीधा प्रसारण भी हम साफतौर पर फिल्म में देखते हैं. निर्देशक ने फिल्म की कई बारीकियों पर ध्यान दिया है. फिल्म की भाषा को खासतौर से कहानी की पृष्ठभूमि के साथ मेल किया गया है और यह इस फिल्म की खूबी है.

साथ ही फिल्म का लुक, लोकेशन भी कहानी के अनुरूप ही है. निर्देशक ने इसमें बारीकी दर्शाई है. कमी बस यह खलती है कि कई किरदार अनकहे से रह जाते हैं. यह मुमकिन है कि निर्देशक ने किसी सोच व नजरिये की वजह कई किरदारों को स्पष्ट रूप से दर्शकों के सामने न रखा हो. लेकिन कहानी की प्रवाह के साथ वह बाधक बनती है. तनिषा तचर्जी ने फिल्म में एक दलित बेसहारा मां का किरदार गंवई अंदाज में बखूबी निभाया है. संजय सुरी जमींदार के रूप में जंचे हैं. लेकिन फिल्म में ध्यान आकर्षित करते हैं तो फिल्म के दोनों बाल कलाकार सोहम मैत्रा.

तमाम बातों के बावजूद ऐसी फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचना जरूरी है, क्योंकि ऐसी फिल्में ऐसे वर्ग की कहानियां दर्शाती हैं, जिनके किस्से, उनके दर्द सामने नहीं आते. चकाचौंध की कहानियों में कहीं कोने में भी ऐसी जिंदगी, लोगों के दर्द मौजूद हैं. इस पर विचार ऐसी फिल्मों को देखने के बाद ही आता है. बहुत हद तक केतन मेहता ने फिल्म मांझी से इस वर्ग की कहानी व जात पात के मुद्दों पर प्रकाश डाला है. विकास की फिल्म ‘चौरंगा’ भी दलित वर्ग के लोगों की जिंदगी की वास्तविक दास्तां हैं, जिनकी जिंदगी दूर से ‘चौरंगा’ नजर आये. लेकिन नजदीक से देखें तो वह खोखली ही नजर आती है.

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