II अनुप्रिया अनंत II
फिल्म : मस्तीजादे
कलाकार : सनी लियोनी, वीर दास, तुषार कपूर, असरानी
निर्देशक : मिलाप मिलन झावेरी
रेटिंग : 1 स्टार
पिछले कुछ सालों में लगातार सेक्स कॉमेडी फिल्मों की तादाद बढ़ी है. ‘मस्ती’, ‘ग्रैंड मस्ती’ और ‘क्या कूल हैं हम’ जैसी फिल्मों ने इस तरह की कॉमेडी फिल्मों को बढ़ावा दिया है. वजह यह रही है कि बॉक्स ऑफिस पर इन फिल्मों ने अच्छी कमाई मिली है और यही वजह है कि ऐसी फिल्मों के निर्देशकों को बढ़ावा मिल रहा है. ऐसी फिल्में अगर बॉक्स ऑफिस पर धरासायी होंगी, तभी उन्हें भी यह बात समझ आयेगी कि आप कॉमेडी के नाम पर कुछ भी बेहुदगी नहीं परोस सकते.
इन दिनों तो जब उनसे यह सवाल पूछे जायें तो वे पत्रकार को ही आउटडेटेड समझने लगते हैं. उनका मानना है कि एक खास दर्शक वर्ग इसे देखता है, तभी तो फिल्में बनती हैं और कामयाब हो रही हैं फिल्में तो क्यों न बनायें. यह भ्रम तोड़ना सबसे पहले बेहद जरूरी है. वरना, ऐसी फिल्मों की संख्या बढ़ेगी. पिछले हफ्ते रिलीज हुई फिल्म ‘क्या कूल हैं हम 3’ के बाद ‘मस्तीजादे’ भी उसी लीग में अगली कड़ी है. ‘मस्तीजादे’ सेक्स कॉमेडी के नाम पर निहायत ही बकवास फिल्म है. ऐसी फिल्में बना कर निर्देशक व निर्माता दर्शकों के सामने क्या साबित करना चाहते हैं. यह समझ से परे हैं.
फिल्म में बेवजह के द्विअर्थी संवादों को ठूसा गया है और दर्शकों को जबरन हंसाने की कोशिश की गयी है. आप बेवजह सी ग्रेड निर्देशकों को दोष देते हैं और उन्हें हीन भावना से देखते हैं. इन दिनों तो खुलेआम सी ग्रेड फिल्में मल्टीप्लेक्स के दर्शक भी देख रहे हैं. इन्हीं सारी केटेगरी में फिट बैठती है मस्तीजादे. एक महत्वपूर्ण सवाल निर्देशक से…कि अगर वे स्वयं संतुष्ट नहीं, कि आखिरकार फिल्म का नाम ‘मस्तीजादे’ क्यों है तो किस वजह से उन्होंने यह शीर्षक रखा. चूंकि फिल्म में वे बार बार इस बात पर जोर डालते नजर आते हैं कि हम हैं मस्तीजादे…क्या मायने हैं मस्तीजादे के.
फिल्म में इतनी चीख के बावजूद दर्शक समझ नहीं पाते कि आखिर कौन हैं ये और क्यों हैं ये. सनी और आदित्य दो दोस्त हैं और एक एड ऐजेंसी में काम करते हैं, जहां उन्हें अपने फूहड़ विज्ञापन आईडियाजके लिए ही पैसे मिलते हैं. अचानक दोनों लीली और लैला से टकराते हैं. लीली और लैला जुड़वा बहने हैं. लीली,लैला- आदित्य और सनी मिल कर जम कर गंध फैलाते हैं परदे पर, जो बर्दाश्त से बाहर हैं. फिल्म से अधिक बदबू तब आने लगती है, जब फिल्म में असरानी की एंट्री होती है. और एक समलैंगिक किरदार की एंट्री होती है.
द्विअर्थी संवाद, दृश्य को खुलेतौर पर निर्देशक ने इस तरह दिखाया है, जैसे उन्हें यह उम्मीद थी कि सामने से तालियां बजेंगी. सनी लियोनी की बनी बनाई छवि का फिल्म में जम कर इस्तेमाल किया गया है. न जाने सनी भी यह बात कब समझेंगी कि उनके सेक्स सिंबल का इस्तेमाल निर्माता बॉक्स ऑफिस पर दर्शक खींचने के लिए करते हैं. और इस बार तो उन्हें डबल रोल दिया गया है. लेकिन दर्शक इस गलतफहमी से इस फिल्म को देखने हरगिज न जायें कि उन्हें हंसने का मौका मिलेगा. फिल्म में वीर दास और तुषार कपूर ने सिर्फ बेवजह ओवर एक्टिंग करने की कोशिशश की है. तुषार तो ऐसी फिल्मों के आदि हो गये हैं.
न जाने इस बार वीर दास भी उसी ढर्रे पर निकल चले हैं. पुराने लतीफे, द्विअर्थी जोक्स से भरपूर यह फिल्म सिर दर्द है. फिल्म के एक भी दृश्य को रोचक तरीके से नहीं रचा गया है, क्योंकि निर्देशक का ध्यान केवल सनी के सेक्स सिंबल को ही दर्शाना है. बेहयायी की हद तो फिल्म के अंतिम दृश्यों में होती है, जब फिल्म में पिता का किरदार निभा रहे असरानी के सामने उनकी दोनों बेटियां कपड़े उतारने को तैयार हो जाती हैं. शायद निर्देशक यह साबित करना चाहते हैं या दर्शाना चाह रहे हैं कि वर्तमान दौर में खुलेपन की कोई सीमा नहीं.
महिला किरदारों के शारीरिक छवि को सिर्फ भद्दे तरीके से दर्शाने की कोशिश की गयी है और दुख की बात है कि महिला पात्र इसे एंजॉय करती नजर आती हैं. निर्देशक का अपना फ्रस्ट्रेशन फिल्म में नजर आता है. ऐसी फिल्मों की नाकामयाबी ही ऐसी फिल्मों के निर्माण पर पूर्णविराम लगा सकती है. वरना, यह गंध मचती ही रहेगी.