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फिल्‍म रिव्यू : भावनाओं के धागे में पिरोई गई साहस की एक कहानी ”नीरजा”

II अनुप्रिया अनंत II फिल्म : नीरजा कलाकार : सोनम कपूर, शबाना आजमी, शेखर रवजियानी, योगेंद्र टीकू, जीम सारब निर्देशक: राम माधवानी लेखक : संयुक्ता चावला शेख, साईवाद कुआदरस रेटिंग : 4.5 स्टार आप अगर सिर्फ खुद से प्यार करते हैं और आपकी दुनिया अपने आप तक ही सीमित है. आप बेहद स्वार्थी हैं. तो […]

II अनुप्रिया अनंत II

फिल्म : नीरजा

कलाकार : सोनम कपूर, शबाना आजमी, शेखर रवजियानी, योगेंद्र टीकू, जीम सारब

निर्देशक: राम माधवानी

लेखक : संयुक्ता चावला शेख, साईवाद कुआदरस

रेटिंग : 4.5 स्टार

आप अगर सिर्फ खुद से प्यार करते हैं और आपकी दुनिया अपने आप तक ही सीमित है. आप बेहद स्वार्थी हैं. तो नीरजा देख कर आपकी सोच बदलेगी. नीरजा एक ऐसी आम सी लड़की की खास कहानी है, जिसने अपना फर्ज निभाना ही अपनी प्राथमिकता समझी. निर्देशक राम माधवानी बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस कहानी का चयन किया.

फिल्म की कहानी आतंकवादियों द्वारा 1986 में कराची में हुए पैम एम फ्लाइट की हाइजैकिंग और उसमें फंसे 379 लोगों में से 359 लोगों की जान बचाने वाली क्रू नीरजा भनोट की कहानी पर आधारित है. नीरजा को अपनी बहादुरी के लिए तीन देशों से सर्वोच्च बहादुरी का खिताब मिला था. चूंकि ऐसी कहानियां ज्यादा से ज्यादा दर्शकों के सामने आनी चाहिए. नीरजा उन तमाम लड़कियों के लिए एक मिसाल है, जो बुरी परिस्थितियों में हिम्मत हारने पर मजबूर हो जाती हैं.

निस्संदेह इस फिल्म को देखने के वे सारी आम लड़कियां फिल्म से खुद को कनेक्ट करेंगी. फिल्म नीरजा भनोट की हिम्मत को सलाम करती है. नीरजा भारत की वह महिला एयर होस्टेस थीं, जिसने 23 साल की उम्र में डर को अपनी हिम्मत से जीता. सबसे कम उम्र में बहादुरी का खिताब जीतने वाली वह भारत की पहली महिला थीं. फिल्म की खूबसूरती यह है कि फिल्म ने शुरुआत से ही हाइजेकिंग के मुद्दे को ही केंद्र में रखा है.

फिल्म की कहानी नीरजा की आम जिंदगी से शुरू होती है. नीरजा आम लड़की है, दो भाईयों के बाद मन्नतों से नीरजा का जन्म हुआ था. यह बात गौरतलब है कि 60 के दशक में जब लड़कियों का जन्म किसी परिवार में अभिशाप माना जाता था. उस दौर में भी नीरजा की मां रमा और रमेश भनोट को बेटी की अभिलाषा थी. मॉडलिंग को लेकर तो अब तक कई परिवारों की सोच नहीं बदली है. लेकिन उस दौर में भी नीरजा को अपने परिवार वालों का साथ मिला और उसने मॉडलिंग में काम किया.

फिल्म में पूरे प्रकरण में पारिवारिक संबंध, नीरजा की आम जिंदगी और हाइजैकिंग की कहानी को साथ साथ लिये चलते हैं. नीरजा स्वभाव से बेहद चुलबुल, मस्तमौला, जिंदगी को जीने वाली और राजेश खन्ना की फैन थीं. लेकिन उसी चुलबुली गुड़िया का जब व्याह होता है. वह पिंजड़े में कैद हो जाती है और फिर मजबूरन वह लौट आती है. निर्देशक ने किसी भाषणबाजी या बहुत ड्रामेटिक अंदाज में नीरजा की बेबसी को नहीं दर्शाया है. निर्देशक की यह खूबी है कि वह हाइजैकिंग के दृश्यों और नीरजा की बीती जिंदगी को बखूबी साथ साथ लेकर चलते हैं.

नीरजा ने किस तरह डर से मुकाबला करते हुए अपने प्रेजेंस ऑफ माइंड का इस्तेमाल किया और बेहद चालाकी से उन्होंने सबसे पहले पायलेट को सूचना दी और पायलेट उस फ्लाइट से बाहर जाने में कामयाब हुए. नीरजा के इस एक कदम से आतंकवादियों का पहला ही कदम ध्वस्त हुआ. इसके बाद हम लगातार देखते चलते हैं कि किस तरह समय के तकाजे को देखते हुए नीरजा चालाकी से वे सारी छोटी-छोटी कोशिशें करती हैं, जिससे वह कई यात्रियों को बचा पाने में सक्षम होती है.

यह नीरजा की इंसानीयत को दर्शाता है कि नीरजा की कोशिश होती है कि वह लगातार आतंकवादियों को बातों में उलझाये रखे. वे जब अमेरिकन यात्रियों की शिनाख्त करने को कहते हैं, उस वक्त भी नीरजा के जेहन में साफ बात यही आती है कि उसे हर यात्री को बचाना है और वह अपनी सूझबूझ से जब तक हो सके हर यात्री की मदद करती है. नीरजा का पहला मौका था, जब उसे उस फ्लाइट में हेड क्रू बनने का मौका मिला था और आखिरी भी. नीरजा जानती थीं कि उनकी जिम्मेदारी क्या है. अपनी जिम्मेदारियों से पीछे मुड़ना सबसे आसान होता.

फिल्म में नीरजा की मां कहती भी है कि उसने हाइजैकिंग की ट्रेनिंग भी की थी, इससे स्पष्ट होता है कि नीरजा इन बातों को लेकर भी कितनी गंभीर थी कि अपने पहली बड़ी जिम्मेदारी को अपना बेस्ट देना चाहती थी. लीडर बनना और लीडरशीप क्वालिटी होना दोनों दो अलग बातें हैं, लेकिन नीरजा यह भी सीख दे जाती हैं कि एक लीडर की डयूटी क्या होती है. जो लोग एयर होस्टेस को आमतौर पर गलत निगाह से देखते हैं और अमूमन उन्हें पढ़ा लिखा बैरा यानी वेटर समझते हैं.

उन्हें तो यह फिल्म देख कर खुद पर शर्म करनी चाहिए, ताकि अगली बार जब वह किसी फ्लाइट में सफर करें तो इन बातों की गहराई को समझें कि किसी क्रू महिला का काम सिर्फ ब्रांडेंड मेकअप लगा कर शो पीस बनना नहीं है. जरूरत पड़ने पर वह अपनी सूजबूझ से आपकी जिंदगी की रक्षा भी करती हैं. फिल्म के अंत में शबाना आजिमी अपनी बेटी के स्वभाव की व्याख्या करते हुए कहती हैं, कि उन्होंने अपनी बेटी की आम लड़की की तरह ही परवरिश की थी. उन्होंने कभी उसे नहीं सिखाया कि तुम बहुत वीर हो. अगर कभी मुसीबत आये तो पहले अपनी जान बचाना.

चूंकि हर माता पिता अपनी बच्ची की सलामती की ही दुआ करते हैं. लेकिन नीरजा ने अपना फर्ज पूरा करते हुए कभी भागने की कोशिश नहीं की. नीरजा की यह कहानी उन तमाम लोगों के लिए एक मिसाल है, जो नौकरी केवल खुद के लिए करते हैं या फिर जो केवल खुद के बारे में सोचते हैं. ऐसे हालात में नीरजा ने अपनी जान की परवाह किये बगैर कई लोगों की जान बचायी. निर्देशक ने पूरी फिल्म को स्वभाविक रखा है. उन्होंने इसे ओवर मेलोड्रामेटिक बनाने की कोशिश नहीं की है. शायद यही वजह है कि फिल्म कनेक्ट कर जाती है.

इस बायोपिक की सबसे खास बात यह है कि नीरजा का किरदार निभा रहीं सोनम का व्यक्तित्व बहुत हद तक नीरजा की तरह है. शायद इसलिए उनका अभिनय भी फिल्म में काफी स्वभाविक नजर आया है. सोनम कपूर ने नीरजा के किरदार को बखूबी निभाया है और निश्चित तौर पर यह उनकी अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. शबाना आजिमी ने रमा भनोट की बारीकियों को परदे पर उकेरा है. एक बेटी की मां की भूमिका में वे बिल्कुल फिट बैठी हैं.

लेखक ने कहानी को सीधी तरह से लिखा है उसमें कुछ भी अतिरिक्‍त जोड़ने की कोशिश नहीं की है. मां और बेटी के संवादों को खूबसूरती से लिखा है. उनके संवाद, उनके हाव-भाव, अपनी बेटी को लेकर स्नेह, उसकी फिक्र उन्होंने हर इमोशन को खुल कर परदे पर जिया है. यही वजह है कि आप इस फिल्म को सिर्फ नीरजा की बायोपिक नहीं कह सकते. यह एक मां और बेटी के खास रिश्ते की भी कहानी है. निर्देशक माधवानी हर लिहाज से बधाई के पात्र हैं. निस्संदेह नीरजा हीरो हैं और उनकी यह कहानी जन जन तक पहुंचनी चाहिए.

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