II अनुप्रिया अनंत II
फिल्म : की एंड का
कलाकार : करीना कपूर खान, अर्जुन कपूर, स्वरूप संपत, रंजीत कपूर
निर्देशक : आर बाल्की
रेटिंग : 3 स्टार
आर बाल्की अपने सामान्य से विषय के चुनाव को अलग अंदाज में प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते रहे हैं. उन्होंने ‘चीनी कम’ में प्यार की कोई सीमा नहीं जैसे वाक्यों को चरितार्थ किया था. इस बार वे फिल्म ‘की एंड का’ लेकर आये हैं. आर बाल्की की यह खासियत है कि वे फिल्मों के शीर्षक से ही अपनी सोच स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी कहानी में नयापन जरूर होगा. फिल्म शमिताभ में भी उन्होंने उलझे से किरदारों की केमेस्ट्री दर्शकों के सामने रखी थी.
इस बार कहानी एक लड़की और एक लड़के की है. फिल्म की खासियत यह है कि फिल्म में प्रेम कहानी के माध्यम से ‘की एंड का’ के रिश्ते यानी लड़के और लड़की की सोच और समाज में उन्हें लेकर बने बनाये ढांचे की परतें खोलती जाती है. फिल्म में इस बात पर पूर्ण रूप से दबाव डाला गया है कि लड़की और लड़के को लेकर जो सोच बनी हुई है वह घर के किचन से शुरू होकर ऑफिस तक पहुंचती है.
फिल्म के कई दृश्य दर्शाते हैं कि एक हाउस व्हाइफ के कामों को हम किस तरह नजरअंदाज करते हैं और हावी वही होता है तो कमाऊ होता है. भारतीय परिवारों में ऐसी कई महिलाएं मिलेंगी, जिन्होंने अपनी घर गृहस्थी को बखूबी सजाया है. उनका निर्वाह किया है. लेकिन तारीफें उन्हें ही मिली है, जिन्होंने नौकरी की है. फिल्म में एक जगह संवाद है कि नौकरी की जाती है और खाना बनाया जाता है. यानी नौकरी तो स्त्रीलिंग है और खाना पुलिंग हैं.
लेकिन वास्तविक जिंदगी में मान लिया गया है कि खाना लड़कियों का ही काम है. नौकरी लड़कों का काम है. या फिर अगर लड़कियां नौकरी करें भी तो उनसे उम्मीद की जाती है कि वे घर को भी उतनी ही कुशलता से संवारें. इस फिल्म में आर बाल्की उन सारे भ्रम को तोड़ते हुए हीरो को हीरोइन और हीरोइन को हीरो के किरदार में ढालते हैं. किया और कबीर में कबीर की इच्छा है कि वह अपनी मां की तरह कामयाब हाउस व्हाइफ बने.
किया बिजनेस वीमन बन कर नाम कमाना चाहती है. फिल्म के कई छोटे-छोटे दृश्यों में कबीर जिस तरह घर की देखभाल कर रहे होते हैं. यह हिंदी फिल्मों की दुनिया में बिल्कुल नया प्रयोग है. शायद ही हिंदी सिनेमा में कबीर यानी अर्जुन कपूर से अधिक वक्त किसी किरदार ने किचन में बिताया होगा. आर बाल्की ने काफी स्पष्ट रूप से इन बातों को दर्शाया है कि दरअसल, पलरा हमेशा उनका ही भारी हो जाता है, जो घर में पैसे लाकर दें. और जो पैसे कमाते हैं. उनका ही समाज में ओहदा बड़ा होता है.
शेष बातें नजरअंदाज की जाती हैं. आर बाल्की इन बातों पर सटीक कटाक्ष करते हैं कि हिंदुस्तानी सभ्यता में घर संभाले तो ‘की’ और बाहर जाकर काम करे तो ‘का’…यही सोच बन चुकी है. मर्द झाड़ू नहीं उठा सकता. लड़कियां भले ही पूरा दिन घर में काम करते करते थक जायें. आर बाल्की ने दरअसल, खूबसूरती से इस अवधारणा पर व्यंग्य किया है. इस फिल्म में एक बार और गौरतलब है कि फिल्म में किया की मां जो कि एक एनजीओ चलाती हैं, वे अधिक खुले विचारों की होती हैं. जबकि कबीर के पिता बंसल जो कि बिल्डर हैं.
वे अपने बेटे को नकारा और निकम्मा ही मानते हैं. किया की मां के रूप में स्वरूप संपत औरकबीर के पिता के रूप में रजीत कपूर समाज में दो अलग विचारधारा रखने वालों का प्रतिनिधित्व करते दिखे हैं. फिल्म के कई दृश्यों में ‘की एंड का’ के बीच तकरार में भी निर्देशक दिखाने की कोशिश करते हैं कि सक्सेसफुल वीमन हो या मर्द कई बार वे भी न काम करने वाले व्यक्ति को निकम्मा ही मान बैठते हैं.
अर्जुन कपूर ने ‘2 स्टेट्स’ के बाद फिर से एक बार प्रभावित किया है. उन्होंने कई दृश्यों में सहजता से अभिनय किया है. करीना कपूर ने एक मॉर्डन लड़की का किरदार बखूबी निभाया है. दोनों की जोड़ी परदे पर जमती है. स्वरूप संपत ने कम दृश्यों में यादगार किरदार निभाया है. रंजीत कपूर के दृश्य काफी रोचक हैं. अमिताभ बच्चन और जया बच्चन की मौजूदगी फिल्म को और खास बनाती है.